अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 33
सूक्त - कौशिकः
देवता - विष्णुक्रमः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा यथाक्षरं शक्वरी, अतिशक्वरी
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
विष्णोः॒ क्रमो॑ऽसि सपत्न॒हाप्सुसं॑शितो॒ वरु॑णतेजाः। अ॒पोऽनु॒ वि क्र॑मे॒ऽहम॒द्भ्यस्तं निर्भ॑जामो॒ यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः। स मा जी॑वी॒त्तं प्रा॒णो ज॑हातु ॥
स्वर सहित पद पाठविष्णो॑: । क्र॒म॑: । अ॒सि॒ । स॒प॒त्न॒ऽहा । अ॒प्सुऽसं॑शित: । वरु॑णऽतेजा: । अ॒प: । अनु॑ । वि । क्र॒मे॒ । अ॒हम् । अ॒त्ऽभ्य: । तम् । नि: । भ॒जा॒म॒: । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । स: । मा । जी॒वी॒त् । तम् । प्रा॒ण: । ज॒हा॒तु॒ ॥५.३३॥
स्वर रहित मन्त्र
विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहाप्सुसंशितो वरुणतेजाः। अपोऽनु वि क्रमेऽहमद्भ्यस्तं निर्भजामो योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥
स्वर रहित पद पाठविष्णो: । क्रम: । असि । सपत्नऽहा । अप्सुऽसंशित: । वरुणऽतेजा: । अप: । अनु । वि । क्रमे । अहम् । अत्ऽभ्य: । तम् । नि: । भजाम: । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । स: । मा । जीवीत् । तम् । प्राण: । जहातु ॥५.३३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 33
भाषार्थ -
(विष्णोः) विष्णु के (क्रमः) पराक्रम वाला (असि) तू है, (सपत्नहा) सपत्न का हनन करने वाला है, (अप्सुसंशितः) जलों में उग्र विद्युत् के सदृश उग्र है, (वरुणतेजाः) और जलों के अधिपति वरुण के तेज वाला तू है। (अहम्) मैं (अपः अनु) जलों में (विक्रमे) विक्रम अर्थात् पराक्रम वाला हूं, (अद्भ्यः) जलों से (तम्) उसे (निर्भजामः) हम भाग रहित करते हैं, वञ्चित करते हैं (यः) जो कि (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, और (यम्) जिस के साथ (वयं द्विष्मः) हम द्वेष करते हैं। (सः) वह (मा) न (जीवीत्) जीवित रहे, (तम्) उसे (प्राणः) प्राण (जहातु) छोड़ जाय।
टिप्पणी -
[वरुण को जलों का अधिपति कहा है। यथा “वरुणोऽपामधिपतिः” (अथर्व० ५।२४।४)। वरुण है मेघ, जोकि सूर्य पर आवरण डालता है। यह जलों का अधिपति है, स्वामी है। यह ही पृथिवी पर जलों की वर्षा करता है। सार्वभौमशासक अपने आप को वरुणसदृश तेज वाला कह कर जलों का अधिपति कहता है, और पृथिवीस्थ जलों से सपत्न को भागरहित करता है, वञ्चित करता है, और सपत्न जलविहीन होकर प्राणों से विहीन हो जाता है। शेष अभिप्राय मन्त्र (५) के सदृश]।