अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 38
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - मन्त्रोक्ता
छन्दः - पुरउष्णिक्
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
दिशो॒ ज्योति॑ष्मतीर॒भ्याव॑र्ते। ता मे॒ द्रवि॑णं यच्छन्तु॒ ता मे॑ ब्राह्मणवर्च॒सम् ॥
स्वर सहित पद पाठदिश॑: । ज्योति॑ष्मती: । अ॒भि॒ऽआव॑र्ते । ता: । मे॒ । द्रवि॑णम् । य॒च्छ॒न्तु॒ । ता: । मे॒ । ब्रा॒ह्म॒ण॒ऽव॒र्च॒सम् ॥५.३८॥
स्वर रहित मन्त्र
दिशो ज्योतिष्मतीरभ्यावर्ते। ता मे द्रविणं यच्छन्तु ता मे ब्राह्मणवर्चसम् ॥
स्वर रहित पद पाठदिश: । ज्योतिष्मती: । अभिऽआवर्ते । ता: । मे । द्रविणम् । यच्छन्तु । ता: । मे । ब्राह्मणऽवर्चसम् ॥५.३८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 38
भाषार्थ -
(ज्योतिष्मतीः) ज्योति वाली (दिशः अभि) दिशाओं की ओर (आवर्ते) मैं सार्वभौमशासक आवर्तन करता हूं, आता हूं। (ताः) वे (मे) मुझे (द्रविणम्) बल या धन (यच्छतु) देवें, (ताः) वे (मे) मुझे (ब्राह्मणवर्चसम्) ब्राह्मणों की दीप्ति देवें।
टिप्पणी -
[सूर्य मकरराशि के पश्चात् उत्तर की ओर प्रयाण आरम्भ करता है। इस प्रयाण में उत्तर की ओर उस की ज्योति बढ़ती जाती है। दक्षिण की ओर जाते हुए उस की ज्योति, उत्तर की ओर, दिन प्रतिदिन घटती जाती है। सार्वभौम शासक भी शासन कार्य में ज्योति का अभिलाषी है। यह ज्योति है ज्ञान ज्योति। यह ज्ञान ज्योति शासक के लिये वास्तविक बल या धन है। इस के निमित्त वह ब्राह्मणों की ज्योति चाहता है। ब्राह्मण ज्ञानज्योति वाले होते हैं, यह ब्राह्मणों की ज्योति है, ब्राह्मणवर्चस है]।