अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 28
सूक्त - कौशिकः
देवता - विष्णुक्रमः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा यथाक्षरं शक्वरी, अतिशक्वरी
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
विष्णोः॒ क्रमो॑ऽसि सपत्न॒हा दिक्सं॑शितो॒ मन॑स्तेजाः। दिशो॒ऽनु॒ वि क्र॑मे॒ऽहं दि॒ग्भ्यस्तं निर्भ॑जामो॒ यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः। स मा जी॑वी॒त्तं प्रा॒णो ज॑हातु ॥
स्वर सहित पद पाठविष्णो॑: । क्रम॑: । अ॒सि॒ । स॒प॒त्न॒ऽहा । दिक्ऽसं॑शित: । मन॑:ऽतेजा: । दिश॑: । अनु॑ । वि । क्र॒मे॒ । अ॒हम् । दि॒क्ऽभ्य: । तम् । नि: । भ॒जा॒म॒: । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । स: । मा । जी॒वी॒त् । तम् । प्रा॒ण: । ज॒हा॒तु॒ ॥५.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा दिक्संशितो मनस्तेजाः। दिशोऽनु वि क्रमेऽहं दिग्भ्यस्तं निर्भजामो योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥
स्वर रहित पद पाठविष्णो: । क्रम: । असि । सपत्नऽहा । दिक्ऽसंशित: । मन:ऽतेजा: । दिश: । अनु । वि । क्रमे । अहम् । दिक्ऽभ्य: । तम् । नि: । भजाम: । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । स: । मा । जीवीत् । तम् । प्राण: । जहातु ॥५.२८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 28
भाषार्थ -
(विष्णोः) विष्णु के (क्रमः) पराक्रम वाला (असि) तू है, (सपत्नहा) सपत्न का हनन करने वाला है, (दिक्संशितः) दिशाओं में तेज अर्थात् उग्र रूप (मनस्तेजाः) तथा मन के सदृश तेजस्वी तू है। (अहम्) मैं (दिशः अनु) दिशाओं में (विक्रमे) विक्रम तथा पराक्रम वाला हूं, (दिग्भ्यः) दिशाओं से (तम्) उसे (निर्भजामः) हम भाग रहित करते हैं (यः) जोकि (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है (यम्) और जिस के साथ प्रतीकार रूप में (वयम् द्विष्मः) हम द्वेष करते हैं। (सः) वह (मा) न (जीवीत्) जीवित रहे (तम्) उसे (प्राणः) प्राण (जहातु) छोड़ जाय।
टिप्पणी -
[दिग्भ्यः, जब सूर्य, भूमध्यरेखा (Equator) पर मार्च और सितम्बर में होता है तब की पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशाओं को दिग्भ्यः कहा है। इन दो कालों में न अधिक सर्दी होती है और न अधिक गर्मी अतः कार्यों के निमित्त मन अधिक स्फूर्ति वाला हो जाता है। मन के सदृश स्फूर्ति या वेग वाला और कोई पदार्थ नहीं। क्षण में यह द्युलोक तथा उस से परे पहुंच जाता है। मन्त्र (२७) में द्युलोक तक विक्रम करने का निर्देश हुआ है। वहां तक पहुंचने के लिये अतिशीघ्र गति चाहिये। इस अतिशीघ्र गति में मन को दृष्टान्त रूप में मन्त्र में कहा है। इस प्रकार मन्त्र २७, २८ में परस्पर सम्बन्ध है। शेष अभिप्राय (मन्त्र २५) के सदृश]।