अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 43
सूक्त - सिन्धुद्वीपः
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
वै॑श्वान॒रस्य॒ दंष्ट्रा॑भ्यां हे॒तिस्तं सम॑धाद॒भि। इ॒यं तं प्सा॒त्वाहु॑तिः स॒मिद्दे॒वी सही॑यसी ॥
स्वर सहित पद पाठवै॒श्वा॒न॒रस्य॑ । दंष्ट्रा॑भ्याम् । हे॒ति: । तम् । सम् । अ॒धा॒त् । अ॒भि । इ॒यम् । तम् । प्सा॒तु॒ । आऽहु॑ति: । स॒म्ऽइत् । दे॒वी । सही॑यसी ॥५.४३॥
स्वर रहित मन्त्र
वैश्वानरस्य दंष्ट्राभ्यां हेतिस्तं समधादभि। इयं तं प्सात्वाहुतिः समिद्देवी सहीयसी ॥
स्वर रहित पद पाठवैश्वानरस्य । दंष्ट्राभ्याम् । हेति: । तम् । सम् । अधात् । अभि । इयम् । तम् । प्सातु । आऽहुति: । सम्ऽइत् । देवी । सहीयसी ॥५.४३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 43
भाषार्थ -
(हेतिः) वज्ररूपी कठोर नियमव्यवस्था ने, (वैश्वानरस्य) सब नर नारियों के हितकारी सार्वभौमशासक के। (दंष्ट्राभ्याम्) दो दाढ़रूपी द्विविध नियमों के साथ, (तम्) उस शासक को (अभि) साक्षात् (समधात्) सम्बद्ध कर दिया है। (इयम्) यह (सहीयसी) बलशालिनी (देवी) दिव्य (समिद् आहुतिः) समिदाधानरूपी आहुति (तम्) उस शासक को (प्सातु) खा ले।
टिप्पणी -
[हेतिः वज्रनाम (निघं० २।२०)। यह हेति दण्डसंविधान है। दंष्ट्राभ्याम् = दो दंष्ट्रा हैं कारागार और मृत्युदण्ड। मन्त्र में "हेति" को अग्नि भी कहा है, जिस के प्रति समिदाधान रूपी आहुति देनी है। यह आहुति देवी है, दिव्यरूपा है। सामान्य काष्ठरूपी नहीं। यह शासकरूपी आहुति है। तथा सहीयसी है, काष्ठरूपी आहुति की अपेक्षया बलशालिनी है। यह अन्य शासकों को भी सचेत करने वाली है। सहः बलनाम (निघं २।९)। मन्त्र में प्रतीयमान अग्नि है सार्वभौम शासन में दण्डव्यवस्था को चलाने वाला "अग्रणी" प्रधानमन्त्री। प्सातु= प्सा भक्षणे (अदादिः)। प्राकृतिक अग्नि की दृष्टि से खाना है भस्मीभूत करना, और अग्नि अर्थात् अग्रणी प्रधान मन्त्री की दृष्टि से अर्थ होगा मृत्युदण्ड या यथोचित दण्ड देना]।