अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 22
सूक्त - सिन्धुद्वीपः
देवता - आपः, चन्द्रमाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
यद॑र्वा॒चीनं॑ त्रैहाय॒णादनृ॑तं॒ किं चो॑दि॒म। आपो॑ मा॒ तस्मा॒त्सर्व॑स्माद्दुरि॒तात्पा॒न्त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अर्वा॒चीन॑म् । त्रै॒हा॒य॒नात् । अनृ॑तम् । किम् । च॒ । ऊ॒दि॒म । आप॑: । मा॒ । तस्मा॑त् । सर्व॑स्मात् । दु॒:ऽइ॒तात् । पा॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥५.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
यदर्वाचीनं त्रैहायणादनृतं किं चोदिम। आपो मा तस्मात्सर्वस्माद्दुरितात्पान्त्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अर्वाचीनम् । त्रैहायनात् । अनृतम् । किम् । च । ऊदिम । आप: । मा । तस्मात् । सर्वस्मात् । दु:ऽइतात् । पान्तु । अंहस: ॥५.२२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 22
भाषार्थ -
[त्रैहायणात१] तीन वर्षों से (अर्वाचीनम्) अव तक, (यत् किंच) जो कोई (अनृतम्, ऊदिम) अनृत-भाषण हम ने किया है, (तस्मान्, दुरितात्) उस दुष्परिणामी तथा (सर्वस्मात्) सब दुष्परिणामी (अंहसः) पापों से (मा) मुझे (आपः२) व्यापक-परमेश्वर (पान्तु) सुरक्षित करें।
टिप्पणी -
[मन्त्र में कितनी सर्वोच्च आध्यात्मिक तथा सदाचार की भावना प्रकट हुई है। वैदिक आदर्शों वाले इन्द्र अर्थात् सम्राट् तथा उस के साम्राज्य की प्रजाएं यह कहती हैं कि तीन वर्षों के समय में हम में से किसी ने अनृत-भाषण नहीं किया। यदि कोई अनृतभाषण हो गया हो, जिस का कि हम में से किसी को स्मरण नहीं, तो उस दुष्परिणामी सव प्रकार के अनृतभाषणरूपी पाप से सर्वव्यापक परमेश्वर हमें सुरक्षित करे। मन्त्र में “आपः" पद न तो प्रजाओं का वाचक है, न जल का, न शारीरिक रस-रक्त-वीर्य का, और न प्राणों का। अपितु सर्वव्यापक और हृदयान्तर्वर्ती परमेश्वर का वाचक है। आपः शब्द परमेश्वरार्थ वाचक भी है। यथा- वैदिक इन्द्र अर्थात् सम्राट् कितना आस्तिक, धार्मिक और परमेश्वर परायण है इस के साक्षी (मन्त्र १५-२१) हैं। राजा के अनुसार ही तो प्रजा होती है। इसीलिये मन्त्र २२ के अनुसार प्रजा भी सत्यपरायण है]। [१. हायन (ह+अयन)= सायन (स+अयन) सकार की विकृति हकार में, अतः सायन अर्थात् उत्तरायण और दक्षिणायन से निर्मित हायन=वर्ष। २. तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् व्रह्म ता आपः स प्रजापतिः (यजु० ३२/१) में, आपः= प्रजापतिः, व्रह्म।]