अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 29
सूक्त - कौशिकः
देवता - विष्णुक्रमः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा यथाक्षरं शक्वरी, अतिशक्वरी
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
विष्णोः॒ क्रमो॑ऽसि सपत्न॒हाशा॑संशितो॒ वात॑तेजाः। आशा॒ अनु॒ वि क्र॑मे॒ऽहमाशा॑भ्य॒स्तं निर्भ॑जामो॒ यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः। स मा जी॑वी॒त्तं प्रा॒णो ज॑हातु ॥
स्वर सहित पद पाठविष्णो॑: । क्रम॑: । अ॒सि॒ । स॒प॒त्न॒ऽहा । आशा॑ऽसंशित: । वात॑ऽतेजा: । आशा॑: । अनु॑ । वि । क्र॒मे॒ । अ॒हम् । आशा॑भ्य: । तम् । नि: । भ॒जा॒म॒: । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । स: । मा । जी॒वी॒त् । तम् । प्रा॒ण: । ज॒हा॒तु॒ ॥५.२९॥
स्वर रहित मन्त्र
विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहाशासंशितो वाततेजाः। आशा अनु वि क्रमेऽहमाशाभ्यस्तं निर्भजामो योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥
स्वर रहित पद पाठविष्णो: । क्रम: । असि । सपत्नऽहा । आशाऽसंशित: । वातऽतेजा: । आशा: । अनु । वि । क्रमे । अहम् । आशाभ्य: । तम् । नि: । भजाम: । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । स: । मा । जीवीत् । तम् । प्राण: । जहातु ॥५.२९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 29
भाषार्थ -
(विष्णोः) विष्णु के (क्रमः) पराक्रम वाला (असि) तू है, (सपत्नहा) सपत्न का हनन करने वाला है, (आशासंशितः) अवान्तर दिशाओं अर्थात् दिगन्तरों में तेज अर्थात् उग्ररूप (वाततेजाः) तथा बात के सदृश तेजस्वी तू है। (अहम्) मैं (आशाः अनु) अवान्तर दिशाओं अर्थात् दिगन्तरों में (विक्रमे) विक्रम अर्थात् पराक्रम करता हूं, (आशाभ्यः) अवान्तर दिशाओं अर्थात् दिगन्तरों से (तम्) उसे (निर्भजामः) हम भागरहित करते हैं (यः) जोकि (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, और (यम्) प्रतीकार रूप में जिसके साथ (वयम् द्विष्मः) हम द्वेष करते हैं। (सः) वह (मा) न (जीवीत्) जीवित रहे, (तम्) उसे (प्राणः) प्राण (जहातु) छोड़ जाय।
टिप्पणी -
[मन्त्र (२८) में दिग्भ्यः द्वारा भूमध्यरेखा पर के सूर्य के होते जो पूर्वादि दिशाएं होती हैं उन का वर्णन हुआ है। और मन्त्र (२९) में अवान्तर दिशाओं का। भूमध्यरेखा से सूर्य, जब उत्तरायण की ओर गति करता है, तब भूमध्यरेखा और उत्तरायण की अन्तिम सीमा के मध्य में जो दिशाएं बनती है वे अवान्तर१ दिशाएं हैं। इसी प्रकार भूमध्यरेखा से दक्षिणायन की अन्तिम सीमा की मध्यवर्ती दिशाएं भी अवान्तर दिशाएं हैं। मार्च मास से अगले मासों में गर्मी बढ़ती जाती है, और वायु झंझारूप में तीव्र गति वाली होती जाती है। इसे बात कहते हैं। इस बात के कारण कई वृक्ष भी धराशायी हो जाते हैं (अथर्व० १२।१।५१)। सार्वभौम शासन में तीव्रता या उग्रता का वर्णन वात द्वारा हुआ है। शेष अभिप्राय मन्त्र (२५) के सदृश। विशेष-२८-२९ मन्त्रों में सार्वभौमशासन के सपत्न का आर्थिक निर्भजन, अर्थात् बहिष्कार वर्णित हुआ है।] [१. अवान्तर दिशाएं सूर्य की दैनिक गति के साथ-साथ प्रतिदित बदलती रहती हैं।]