अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 27
सूक्त - कौशिकः
देवता - विष्णुक्रमः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा यथाक्षरं शक्वरी, अतिशक्वरी
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
विष्णोः॒ क्रमो॑ऽसि सपत्न॒हा द्यौसं॑शितः॒ सूर्य॑तेजाः। दिव॒मनु॒ वि क्र॑मे॒ऽहं दि॒वस्तं निर्भ॑जामो॒ यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः। स मा जिवी॒त्तं प्रा॒णो ज॑हातु ॥
स्वर सहित पद पाठविष्णो॑: । क्रम॑: । अ॒सि॒ । स॒प॒त्न॒ऽहा । द्यौऽसं॑शित: । सूर्य॑ऽतेजा: । दिव॑म् । अनु॑ । वि । क्र॒मे॒ । अ॒हम् । दि॒व: । तम् । नि: । भ॒जा॒म॒: । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । स: । मा । जी॒वी॒त् । तम् । प्रा॒ण: । ज॒हा॒तु॒ ॥५.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा द्यौसंशितः सूर्यतेजाः। दिवमनु वि क्रमेऽहं दिवस्तं निर्भजामो योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। स मा जिवीत्तं प्राणो जहातु ॥
स्वर रहित पद पाठविष्णो: । क्रम: । असि । सपत्नऽहा । द्यौऽसंशित: । सूर्यऽतेजा: । दिवम् । अनु । वि । क्रमे । अहम् । दिव: । तम् । नि: । भजाम: । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । स: । मा । जीवीत् । तम् । प्राण: । जहातु ॥५.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 27
भाषार्थ -
(विष्णोः) विष्णु के (क्रमः) पराक्रम वाला (असि) तू है, (सपत्नहा) सपत्न का हनन करने वाला है, (द्यौसंशितः) द्युलोक में तेज अर्थात् उग्र रूप (सूर्यतेजाः) तथा सूर्य के सदृश तेजस्वी तू है। (अहम्) मैं (दिवम् अनु) द्युलोक में (विक्रमे) विक्रम अर्थात् पराक्रम वाला हूं, (दिवः) द्युलोक से (तम्) उसे (निर्भजामः) हम भागरहित करते हैं (यः) जो कि (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, (यम्) जिस के साथ प्रतीकाररूप में हम द्वेष करते हैं। (सः) वह (मा) न (जीवीत्) जीवित रहे, (तम्) उसे (प्राणः) प्राण (जहातु) छोड़ जाय।
टिप्पणी -
[सार्वभौम शासक अपने आप को सूर्यसदृश तेजस्वी कहता है। सूर्य जैसे शत्रुरूप अन्धकार का विनाश करता, और शत्रुरूप मेघ को छिन्न-भिन्न करता है, वैसे सार्वभौम शासक भी द्युलोकस्थ शत्रुओं को विनष्ट करता है। द्युलोक में भी भिन्न-भिन्न नक्षत्रों और ताराओं के ग्रहों में मनुष्य आदि सदृश प्राणी रहते हैं - यह वैदिक मान्यता है। जैसे वर्तमान वैज्ञानिक युग में उत्क्षेपक-विमान, सूर्यलोक का भी अतिक्रमण कर के, उस से भी परे तक पहुंचे हैं, वैसे सार्वभौमशासक भी वहां पहुंच कर शत्रुओं का विनाश कर सकता है। शेष अभिप्राय (मन्त्र २५) के सदृश]।