अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 30
सूक्त - कौशिकः
देवता - विष्णुक्रमः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा यथाक्षरं शक्वरी, अतिशक्वरी
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
विष्णोः॒ क्रमो॑ऽसि सपत्न॒हा ऋक्सं॑शितः॒ साम॑तेजाः। ऋचोऽनु॒ वि क्र॑मे॒ऽहमृ॒ग्भ्यस्तं निर्भ॑जामो॒ यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः। स मा जी॑वी॒त्तं प्रा॒णो ज॑हातु ॥
स्वर सहित पद पाठविष्णो॑: । क्रम॑: । अ॒सि॒ । स॒प॒त्न॒ऽहा । ऋक्ऽसं॑शित: । साम॑ऽतेजा: । ऋच॑: । अनु॑ । वि । क्र॒मे॒ । अ॒हम् । ऋ॒क्ऽभ्य: । तम् । नि: । भ॒जा॒म॒: । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । स: । मा । जी॒वी॒त् । तम् । प्रा॒ण: । ज॒हा॒तु॒ ॥५.३०॥
स्वर रहित मन्त्र
विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा ऋक्संशितः सामतेजाः। ऋचोऽनु वि क्रमेऽहमृग्भ्यस्तं निर्भजामो योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥
स्वर रहित पद पाठविष्णो: । क्रम: । असि । सपत्नऽहा । ऋक्ऽसंशित: । सामऽतेजा: । ऋच: । अनु । वि । क्रमे । अहम् । ऋक्ऽभ्य: । तम् । नि: । भजाम: । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । स: । मा । जीवीत् । तम् । प्राण: । जहातु ॥५.३०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 30
भाषार्थ -
(विष्णोः) विष्णु के (क्रमः) पराक्रम वाला (असि) तू है, (सपत्नहा) सपत्न का हनन करने वाला है, (ऋकसंशितः) ऋचाओं द्वारा उग्र हुआ है। (सामतेजाः) तथा साम के तेज वाला तू है। (अहम्) मैं (ऋचः अनु) ऋचाओं में (विक्रमे) पराक्रम वाला हूं, (ऋग्भ्यः) ऋचाओं से (तम्) उसे (निर्भजामः) हम भाग रहित करते हैं (यः) जोकि (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, और (यम्) जिस के साथ (वयम् द्विष्मः) हम द्वेष करते हैं। (सः) वह (मा) न (जीवीत्) जीवित रहे, (तम्) उसे (प्राणः) प्राण (जहातु) छोड़ जाय।
टिप्पणी -
[सार्वभौम शासक कहता है कि मैं ऋचाओं के राजनैतिक उपदेशों द्वारा उग्र हुआ हूं, और साम के उपदेशों द्वारा साम अर्थात् शान्त स्वभाव वाला भी हूं। शासन में समयानुसार उग्रता तथा शान्ति का प्रयोग करना होता है। यथा “साम, दाम, दण्ड, भेद" इन चार उपायों का अवलम्बन शासकों को करना होता है। इन उपायों में साम और दण्ड का भी कथन हुआ है। साम है शान्ति, और दण्ड है उग्रता। ऋचाओं१ से सपत्न के निर्भजन अर्थात् बहिष्कार का वर्णन हुआ है। अभिप्राय यह सपत्न को वैदिक संस्कृति से वञ्चित कर देना चाहिये, वैदिक संस्कृति में, निर्दिष्ट साम उपाय का अवलम्बन सपत्न के लिये न हो कर ऋग्वेदीय उग्रता-उपाय का अवलम्बन करना चाहिये, जबकि सपत्न सार्वभौमशासन के प्रतिकूल आचरण करे। मन्त्र में "ऋक्" द्वारा ऋग्वेद को, और "साम" द्वारा सामवेद को भी सूचित किया है। शेष अभिप्राय (मन्त्र २५) के सदृश]। [१. ऋचाओं से सपत्न के निर्भजन का यह अभिप्राय भी सम्भव है कि उसे वहां शामिल होने से वञ्चित कर देना चाहिये जहां ऋचाओं के आधार पर सामगान हो रहा हो। यह सपत्न का सामाजिक बहिष्कार है।]