अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 37
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - मन्त्रोक्ता
छन्दः - विराट्पुरस्ताद्बृहती
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
सूर्य॑स्या॒वृत॑म॒न्वाव॑र्ते॒ दक्षि॑णा॒मन्वा॒वृत॑म्। सा मे॒ द्रवि॑णं यच्छतु॒ सा मे॑ ब्राह्मणवर्च॒सम् ॥
स्वर सहित पद पाठसूर्य॑स्य । आ॒ऽवृत॑म् । अ॒नु॒ऽआव॑र्ते । दक्षि॑णाम् । अनु॑ । आ॒ऽवृत॑म् । सा । मे॒ । दवि॑णम् । य॒च्छ॒तु॒ । सा । मे॒ । ब्रा॒ह्म॒ण॒ऽव॒र्च॒सम् ॥५.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
सूर्यस्यावृतमन्वावर्ते दक्षिणामन्वावृतम्। सा मे द्रविणं यच्छतु सा मे ब्राह्मणवर्चसम् ॥
स्वर रहित पद पाठसूर्यस्य । आऽवृतम् । अनुऽआवर्ते । दक्षिणाम् । अनु । आऽवृतम् । सा । मे । दविणम् । यच्छतु । सा । मे । ब्राह्मणऽवर्चसम् ॥५.३७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 37
भाषार्थ -
(सूर्यस्य) सूर्य की (आवृतम्, अनु) गति के अनुरूप (आवर्ते) मैं सार्वभौमशासक गति करता हूं, चलता हूँ। (दक्षिणाम, अनु) अर्थात् दक्षिण दिशा की ओर (आवृतम् अनु, आवर्ते) सूर्य की गति के अनुरूप गति करता हूं, चलता हूँ। (सा) वह आवृत् (मे) मुझे (द्रविणम्) बल या धन (यच्छतु) देवे, (सा) वह आवृत् (मे) मुझे (ब्राह्मणवर्चसम) ब्राह्मणों को दीप्ति देवे।
टिप्पणी -
[सूर्य दक्षिणायन की ओर जाता हुआ दक्षिण दिशा की ओर गति करता है। इस गति में वह उत्तरायण की तीक्ष्णगर्मी का परित्याग कर, शान्तप्रकृतिक हो जाता है। सार्वभौमशासक भी शासन में शान्ति चाहता है। इस भावना को वह ब्राह्मणवर्चस की प्राप्ति द्वारा भी सूचित करता है। ब्राह्मण शान्त प्रकृति के होते हैं, और क्षत्रिय उग्र प्रकृति के। शान्ति को ही मन्त्र में द्रविण कहा है, वास्तविक बल या धन कहा है। शासन का उद्देश्य भी यही होता है कि प्रजा में शान्ति का स्थापन। शान्तिसम्पन्न प्रजा ही उन्नति कर सकती है। दक्षिण दिशा की ओर जाता हुआ सूर्य मकर-राशि तक शान्त होता जाता है।]