अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 10
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
मनो॑ अस्या॒ अन॑आसी॒द्द्यौरा॑सीदु॒त च्छ॒दिः। शु॒क्राव॑न॒ड्वाहा॑वास्तां॒ यदया॑त्सू॒र्या पति॑म्॥
स्वर सहित पद पाठमन॑: । अ॒स्या॒: । अन॑: । आ॒सी॒त् । द्यौ: । आ॒सी॒त् । उ॒त । छ॒दि: । शु॒क्रौ । अ॒न॒ड्वाहौ॑ । आ॒स्ता॒म् । यत् । अया॑त् । सू॒र्या । पति॑म् ॥१.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
मनो अस्या अनआसीद्द्यौरासीदुत च्छदिः। शुक्रावनड्वाहावास्तां यदयात्सूर्या पतिम्॥
स्वर रहित पद पाठमन: । अस्या: । अन: । आसीत् । द्यौ: । आसीत् । उत । छदि: । शुक्रौ । अनड्वाहौ । आस्ताम् । यत् । अयात् । सूर्या । पतिम् ॥१.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(अस्याः) इस सूर्याब्रह्मचारिणी का (अनः) रथ (मनः) मन था (उत) और (छदिः) छत्त (द्यौः) सिर दिमाग, विचार शक्ति (आसीद्) थी, (अनड्वाहौ) मनरूपी रथ का वहन करने वाले दो बैल (शुक्रौ) बलशाली ज्ञानेन्द्रियवर्ग तथा कर्मेन्द्रियवर्ग (आस्तास्) थे, (यद्) जबकि (सूर्या) सूर्या ब्रह्मचारिणी (पतिम्) पति की ओर (अयात्) गई।
टिप्पणी -
[व्याख्या- मन्त्र में सूर्या ब्रह्मचारिणी के गुणों पर प्रकाश डाला गया है। सूर्या जब पति की ओर चली तब इस का मन ही रथरूप था। विना मनोवाञ्छा के किसी चेतन का चलना नहीं हो सकता। सूर्या निज इच्छापूर्वक पति की ओर चली,-यह अभिप्राय "मनः, अनः" द्वारा प्रकट किया है। मनरूपी रथ की छत्त थी द्यौः। वेदों में आध्यात्मिक दृष्टि में शीर्ष अर्थात् सिर को द्यौः कहा है। यथा "शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत" (यजु० ३१।१३) अर्थात् सिर द्युलोक का प्रतिनिधि है। सिर या दिमाग विचार का केन्द्र है। मन तो इच्छा का द्योतक है, और द्यौः या सिर अथवा दिमाग विचार का द्योतक है। सूर्या के मनरूपी रथ पर अर्थात् उसकी मनोवाञ्छा पर द्यौः अर्थात् विचार की छत्त थी। अभिप्राय यह कि सूर्या की इच्छा, उसके विचार द्वारा सुरक्षित थी, प्रेरित थी। सूर्या की इच्छाशक्ति के रथ पर सुविचार की छदिः अर्थात् छत्त थी। छदिः का काम है रथ को धूप, सरदी और वर्षा आदि से बचाना। छद अपवारणे। इसी प्रकार सुविचार की छदिः, सूर्या की मनोवाञ्छा को कुमार्ग से बचाने वाली हुई। विचाररहित अनियन्त्रित इच्छा कुमार्गगामिनी हो सकती है। सूर्या की इच्छा जो पति की ओर जाने की हुई वह उस के सुविचारपूर्वक हुई, यह अभिप्राय है। अनड्वाहौ = अनस् = रथ, वाहौ= वहन करनेवाले दो बैल। मन्त्र १४।१।११ में अनड्वाहौ के स्थान में "गावौ" पठित है। वेद में गो शब्द इन्द्रिय वाचक भी है। गौः का अर्थ महर्षि दयानन्द ने "इन्द्रिय" भी किया है (उणा० २।६८)। इसीलिये इन्द्रियों के विषयों को 'गोचर' कहते हैं। अर्थात् जिन में गौएं अर्थात् इन्द्रियां विचरती हैं। इन्द्रियां अर्थात् ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रियां मनरूपी रथ को विषयों की ओर खींचे ले जाती हैं। सूर्या के विवाह में, सूर्या की इन्द्रियां१, सूर्या के मनरूपी रथ का वहन करने वाली बनीं] तथा [आधिभौतिक दृष्टि में मन्त्र सूर्या के भौतिक-रथ का भी वर्णन करता है। विवाह के पश्चात् सूर्या जब पतिगृह की ओर चली तब सूर्या का रथ "मनः" अर्थात् मननीय था, मनोरम था। इस रथ की छत्त "छदिः" द्युलोक के सदृश थी, अर्थात् द्युलोक जैसे सितारों से सजा हुआ है, वैसे रथ की छत्त कृत्रिम सितारों द्वारा सुसज्जित थी या होनी चाहिये। अथर्व० १४।१।६१ में सूर्या के रथ को "सुकिंशुक" कहा है, टेसु अर्थात् ढाक के फूलों से सजा हुआ कहा है। तथा इस भौतिक रथ के वहन करने वाले दो बैल थे, जोकि वीर्यवान् अर्थात् बलशाली थे (शुक्रौ, अनड्वाहौ)।] [१. इन इन्द्रियों को शुक्रौ कहा है। शुक्र का अर्थ होता है,—वीर्य। सूर्या के ब्रह्मचर्य के कारण सूर्या की इन्द्रियां वीर्यवती। अर्थात् बलवती थीं। शुक्र= शुक्र + अच् (अर्शआदिभ्योऽच; अष्टा० ५।२। १२७)। अतः शुक्र= शुक्रवान्]