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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 62
    सूक्त - आत्मा देवता - सोम छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    अभ्रा॑तृघ्नींवरु॒णाप॑शुघ्नीं बृहस्पते। इ॒न्द्राप॑तिघ्नीं पु॒त्रिणी॒मास्मभ्यं॑ सवितर्वह॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अभ्रा॑तृऽघ्नीम् । व॒रु॒ण॒ । अप॑शुऽघ्नीम् । बृ॒ह॒स्प॒ते॒ । इन्द्र॑ । अप॑तिऽघ्नीम् । पु॒त्रिणी॑म् । आ । अ॒स्मभ्य॑म् । स॒वि॒त॒: । व॒ह॒ ॥१.६२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभ्रातृघ्नींवरुणापशुघ्नीं बृहस्पते। इन्द्रापतिघ्नीं पुत्रिणीमास्मभ्यं सवितर्वह॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभ्रातृऽघ्नीम् । वरुण । अपशुऽघ्नीम् । बृहस्पते । इन्द्र । अपतिऽघ्नीम् । पुत्रिणीम् । आ । अस्मभ्यम् । सवित: । वह ॥१.६२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 62

    भाषार्थ -
    (वरुण) हे श्रेष्ठ तथा पत्नी का वरण करने वाले ! (बृहस्पते) तथा बृहती वेदवाणी के विद्वन् ! (इन्द्र) हे आत्मिक शक्तिसम्पन्न ! (सवितः) और उत्पादनशक्ति से सम्पन्न पुत्र ! तू (अभ्रातृघ्नीम्) भाईयों का हनन न करने वाली, (अपशुघ्नीम्) पशुओं का हनन न करने वाली, (अपतिघ्नीम्) पति का हनन न करने वाली, (पुत्रिणीम्) पुत्र-पुत्रियों के उत्पादन में समर्थ वधू को (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (आ वह) ला।

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