अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 61
सूक्त - आत्मा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
सु॑किंशु॒कंव॑ह॒तुं वि॒श्वरू॑पं॒ हिर॑ण्यवर्णं सु॒वृतं॑ सुच॒क्रम्। आ रो॑ह सूर्येअ॒मृत॑स्य लो॒कं स्यो॒नं पति॑भ्यो वह॒तुं कृ॑णु॒ त्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽकिं॒शु॒कम् । व॒ह॒तुम् । वि॒श्वऽरू॑पम् । हिर॑ण्यऽवर्णम् । सु॒ऽवृत॑म् । सु॒ऽच॒क्रम् । आ । रो॒ह॒ । सू॒र्ये॒॑ । अ॒मृत॑स्य । लो॒कम् । स्यो॒नम् । पति॑ऽभ्य: । व॒ह॒तुम् । कृ॒णु॒ । त्वम् ॥१.६१॥
स्वर रहित मन्त्र
सुकिंशुकंवहतुं विश्वरूपं हिरण्यवर्णं सुवृतं सुचक्रम्। आ रोह सूर्येअमृतस्य लोकं स्योनं पतिभ्यो वहतुं कृणु त्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽकिंशुकम् । वहतुम् । विश्वऽरूपम् । हिरण्यऽवर्णम् । सुऽवृतम् । सुऽचक्रम् । आ । रोह । सूर्ये । अमृतस्य । लोकम् । स्योनम् । पतिऽभ्य: । वहतुम् । कृणु । त्वम् ॥१.६१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 61
भाषार्थ -
(सुकिंशुकम्) पलाश= अर्थात ढाक के सुन्दर फूलों से सुसज्जित, या सुन्दर सुसज्जित, प्रकाशमान, (विश्वरूपम्) नानाविधरूपों वाले, (हिरण्यवर्णम्) सुवर्ण की नक्काशी वाले, (सुवृतम्) सुघड़ या उत्तम रीति से चलने वाले (सुचक्रम्) उत्तम पहियों वाले (वहतुम्) रथ के सदृश वर्तमान (वहतुम्) गृहस्थ-रथ पर (सूर्ये) हे सूर्या-ब्रह्मचारिणी! तू (आ रोह) आरूढ़ हो, यह गृहस्थ-रथ (अमृतस्य लोकम्) अमृत का स्थान है, इस गृहस्थ-रथ को (त्वम्) तू (पतिभ्यः) पति और अन्य अपने रक्षकों के लिए (स्योनम्) सुखकारी (कृणु) कर।
टिप्पणी -
[सुकिंशुकम् = सुन्दर किंशुक अर्थात् ढाक, टेसु, पलाश के फूलों द्वारा सुसज्जित। ढाक के फूलों को किंशुक कहते हैं। आकृति में ये फूल "शुक" अर्थात् तोतों जैसे होते हैं, इन्हें देखते ऐसा प्रतीत होता है कि मानो छोटे-छोटे तोते डालियों पर बैठे हैं। ये फूल बसन्त काल में खिलते हैं। ऋ० १०।८५।२० में सुकिंशुकम् के साथ शल्मलिम् पाठ भी है। शल्मलि का अर्थ है सिम्बल। सिम्बल के फूल भी लालवर्ण और सुन्दर होते हैं, और वसन्त में खिलते हैं। अथर्व० १४।१।१३ में "फल्गुनीषु व्यूह्यते" द्वारा विवाह के लिए आदर्श काल फाल्गुन-मास माना है, जो कि वसन्तकाल है। इसी वसन्तकाल की परिपुष्टि सुकिंशुकम्, तथा शल्मलिम् शब्द कर रहे हैं। (निरु० १२।१।८) में सुकिंशुक और शल्मलि के अर्थ निम्नलिखित दिये हैं सुकाशनम् अर्थात् सुन्दर-प्रकाश वाला, तथा शल्मलिम् अर्थात् शन्नमलम्, नष्टमल, निर्मल। निरुक्त में "अपि वोपमार्थे स्यात्" द्वारा "सुकिंशुकमिव शल्मलिमिति” को उपमार्थक कहते हुए "किंशुक" का वृक्षरूप तथा पुष्परूप होना भी स्वीकृत किया है। इसी प्रकार "शल्मलिः सुशरो भवति, शरवान् वा" द्वारा शल्मलि का वृक्षरूप तथा पुष्परूप होना भी स्वीकृत किया है। स्योनम् सुखनाम (निघं० ३।६)] [व्याख्या - पत्नी जब पितृगृह से पतिगृह की ओर जाने लगे तब पत्नी जिस रथ पर आरूढ़ हो वह पुष्पमालाओं द्वारा सुसज्जित होना चाहिए, तथा विविध रूपों से रूपित, सुघड़, तथा सुन्दर और साफ पहियों वाला होना चाहिये। सूर्या ब्रह्मचारिणी विवाह के अनन्तर पतिगृह को जाने के लिए जब रथ पर आरोहण करे तब उसे कहना चाहिये कि अब तू इस रथ पर आरूढ़ होती हुई मानो गृहस्थ रथ पर आरूढ़ हुई है। यह गृहस्थरथ अमृत का स्थान है (अथर्व० १४।१।४२), इसे नरक धाम न बनाना। तथा गृहस्थ में ऐसा व्यवहार करना जिस से कि तेरा पति इस गृहस्थ को सुखधाम अनुभव कर सके। तथा पतिगृह में रहने वाले जो तेरे अन्य रक्षक हैं, यथा सास, श्वशुर, देवर आदि उन के साथ भी सद्व्यवहार द्वारा उन्हें भी सुखी रखना। वेदों के अनुसार यतः पत्नी गृह की सम्राज्ञी है, और गृह का प्रबन्ध इसी के हाथ में है, इस लिये सम्भावित हो सकता है कि बुजुर्गों आदि के साथ व्यवहार में कहीं यह उच्छृङ्खल न हो जाए, इस लिये पिता का सदुपदेश समयोचित प्रतीत होता है।]