अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 16
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
द्वे ते॑ च॒क्रेसूर्ये॑ ब्र॒ह्माण॑ ऋतु॒था वि॑दुः। अथैकं॑ च॒क्रं यद्गुहा॒ तद॑द्धा॒तय॒इद्वि॒दुः ॥
स्वर सहित पद पाठद्वे इति॑ । ते॒ । च॒क्रे इति॑ । सूर्ये॑ । ब्र॒ह्माण॑: । ऋ॒तु॒ऽथा । वि॒दु॒: । अथ॑ । एक॑म् । च॒क्रम् । यत् । गुहा॑ । तत् । अ॒ध्दातय॑: । इत् । वि॒दु: ॥१.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
द्वे ते चक्रेसूर्ये ब्रह्माण ऋतुथा विदुः। अथैकं चक्रं यद्गुहा तदद्धातयइद्विदुः ॥
स्वर रहित पद पाठद्वे इति । ते । चक्रे इति । सूर्ये । ब्रह्माण: । ऋतुऽथा । विदु: । अथ । एकम् । चक्रम् । यत् । गुहा । तत् । अध्दातय: । इत् । विदु: ॥१.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 16
भाषार्थ -
(ते) उन प्रसिद्ध (द्वे) दो (चक्रे) चक्रों को (ब्रह्माणः) वेदवेत्ता (सूर्ये) सूर्य में, (ऋतुथा) वसन्त ऋतु के अनुसार (विदुः) जानते हैं, (अथ) और (एकम्, चक्रम्) एक चक्र (यद्) जो कि (गुहा) घर में अज्ञात रूप में होता है (तद्) उसे (अद्धातयः, इत्) सतत सत्यानुगामी विद्वान् ही (विदुः) जानते हैं।
टिप्पणी -
[ते="तद्" का द्वितीया विभक्ति का द्विवचन, नपुंसकलिङ्ग। सूर्ये="सूर्य" का सप्तम्येक वचन। अद्धातयः= अद्धा सत्यनाम (निघं० ३।१०)+अत् (सततगमने) ब्रह्माणः, ब्रह्म=ईश्वरः, "वेदः" तत्त्व, तपो वा (उणा० ४।१४७) महर्षि दयानन्द। अथवा ब्रह्मवेद=अथर्ववेद। मन्त्र १४ में त्रिचक्र का वर्णन है। मन्त्र १६ में उन तीन चक्रों का विभाग दर्शाया है कि दो चक्र तो सूर्य में हैं, और एक चक्र गुहा में है, अर्थात् गुफा में स्थित अज्ञात वस्तु के सदृश अज्ञातरूप है। सूर्य में दो चक्र स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। (१) एक दैनिक गति का चक्र अर्थात् चक्कर, पूर्व से पश्चिम तथा पश्चिम से पुनः पूर्व तक। यह दिन रात की ऋतु का निर्माण करता है। (२) दूसरा चक्र अर्थात् चक्कर है उत्तरायण सीमान्त से दक्षिणायन सीमान्त, और दक्षिणायन सीमान्त से पुनः उत्तरायण सीमान्त तक। यह दूसरा चक्र=चक्कर, ऋतुओं का निर्माण करता है। मन्त्र में 'ऋतुथा" शब्द द्वारा वसन्त ऋतु का ग्रहण है। सूर्य दक्षिणायन से लौट कर जब भूमध्य रेखा पर आता है तब वसन्त ऋतु यौवन में होती है। मन्त्र १३ के अनुसार विवाह फाल्गुन में होना चाहिये, और फाल्गुन के प्रारम्भ के लगभग वसन्तु-ऋतु का प्रारम्भ हो जाता है। इस लिये "ऋतुथा" शब्द द्वारा सूर्या के ऋतुधर्म का सम्बन्ध मन्त्र में अभिप्रेत नहीं प्रतीत होता। विवाह के इन मन्त्रों में द्योः१ और पृथिवी का वर-और-वधू के रूप में सम्बन्ध दर्शाया है। यथा मकर अथर्वः [१४।२।७१] द्यौः१ अर्थात् सूर्य में स्थित दो चक्रों का वर्णन मन्त्र के पूर्वार्ध में हुआ है। उत्तरार्ध में पृथिवी के एक चक्र का वर्णन है जिसे कि गुहा पद द्वारा अज्ञात स्वरूप दर्शाया है। पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती है। यह पृथिवी का चक्र है। पृथिवीस्थ प्राणियों को पृथिवी का यह चक्र अनुभूयमान नहीं होता। अतः इस चक्र का वर्णन "यद् गुहा" द्वारा हुआ है। सूर्यारूपी पृथिवी का यह एक चक्र या परिक्रमा है। सूर्य मानो पृथिवी की ऋतुओं के सम्बन्ध में दो परिक्रमायें करता है, और पृथिवी सूर्य की एक परिक्रमा करती है। यह वर्णन यथादृष्ट तथा यथानुभूत वर्णन है। वैदिक सिद्धान्त में पृथिवी ही सूर्य की परिक्रमा करती है, सूर्य पृथिवी की परिक्रमा नहीं करता। यथाः- आयं गौः पृश्नि॑रक्रमी॒दस॑दन् मा॒तरं॑ पु॒रः। पि॒तरं॑ च प्र॒यन्त्स्वः॑॥६॥ (यजु० ३।६)।][१. मन्त्र में द्यौः द्वारा सूर्य अभिप्रेत है, न कि द्युलोक सौरमण्डल में सूर्य और पृथिवी का परस्पर सम्बन्ध वर-वधू के रूप में प्रकट किया है, न कि द्युलोक और पृथिवी का। सूर्य को द्यौः कहा है "द्यौतनात्"। द्योतन के कारण; द्यौः का अर्थ अन्तरिक्ष भी है (उणा० २।६८) महर्षि दयानन्द।] अथवा [(सूर्ये) हे सूर्या ब्रह्मचारिणी ! (ते) तेरे (द्वे) दो (चक्रे) चक्कर अर्थात् परिक्रमायें (ब्रह्माणः) वेदवेत्ता विद्वान् (ऋतुथा) वसन्त ऋतु के विवाहानुसार (विदुः) जानते हैं। (अथ) तथा (एकम्) एक (चक्रम्) चक्कर अर्थात् परिक्रमा (यद्) जो कि (गुहा) अज्ञात सी होती है, (तत्) उसे (अद्धातयः) सतत सत्यानुगामी विद्वान् ही (विदुः) जानते हैं।] [व्याख्या— मन्त्र द्वारा प्रतीत होता है कि सूर्या के विवाह के समय सूर्या दो परिक्रमाएं करती है विवाहमण्डप में, जहां कि विवाह में निमन्त्रित देव-देवियां बैठी होती हैं। और सूर्या एक परिक्रमा करती है, घर के भीतर। इस परिक्रमा के साक्षी सत्यमय जीवनों वाले विद्वान् ही होते हैं, सर्व साधारण निमन्त्रित व्यक्ति नहीं। घर के भीतर हुई इस परिक्रमा के सम्बन्ध में "गुहा" शब्द का प्रयोग हुआ है। ऐसी ही वैदिक विधि मन्त्र द्वारा प्रतीत होती हैं। सूर्या की दो मण्डप-परिक्रमाओं और एक गुहा-परिक्रमा के साथ साथ वर भी परिक्रमाएं करता है। इन तीन परिक्रमाओं का निर्देश "त्रिचक्रेण वहतुं सूर्यायाः" द्वारा हुआ है (अथर्व० १४।१।१४)। अथवा सूर्य अर्थात् वर की, विवाह मण्डप में, दो परिक्रमाओं के साथ सूर्या भी, तथा सूर्या की एक गुहा परिक्रमा के साथ वर भी परिक्रमा करता है। इन मन्त्रों द्वारा परिक्रमाओं का स्वरूप ऐसा ही प्रतीत होता है, चाहे पद्धतिकारों ने इन परिक्रमाओं के स्वरूप भिन्न प्रकार के कहे हैं। पद्धतिकारों ने भी विवाह की विधियां दो प्रकार की कही हैं। कुछ विधियां तो वधू के घर में होती हैं, और कुछ विवाहमण्डप या सभामण्डप में होती हैं। घर में होने वाली विधियों को गुहा-विधियां कह सकते हैं, जिन में कि, मन्त्रनिर्देशानुसार, सूर्या की एक परिक्रमा भी गुहा-परिक्रमा है]