अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 11
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
ऋक्सा॒माभ्या॑म॒भिहि॑तौ॒ गावौ॑ ते साम॒नावै॑ताम्। श्रोत्रे॑ ते च॒क्रे आ॑स्तांदि॒वि पन्था॑श्चराच॒रः ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒क्ऽसा॒माभ्या॑म् । अ॒भिऽहि॑तौ । गावौ॑ । ते॒ । सा॒म॒नौ । ऐ॒ता॒म् । श्रोत्रे॒ इति॑ । ते॒ । च॒क्रे इति॑ । आ॒स्ता॒म् । दि॒वि । पन्था॑: । च॒रा॒च॒र: ॥१.११॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋक्सामाभ्यामभिहितौ गावौ ते सामनावैताम्। श्रोत्रे ते चक्रे आस्तांदिवि पन्थाश्चराचरः ॥
स्वर रहित पद पाठऋक्ऽसामाभ्याम् । अभिऽहितौ । गावौ । ते । सामनौ । ऐताम् । श्रोत्रे इति । ते । चक्रे इति । आस्ताम् । दिवि । पन्था: । चराचर: ॥१.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
हे सूर्या ब्रह्मचारिणी! (ऋक् सामाभ्याम्) ऋग्वेद के ज्ञान और सामवेद की उपासना द्वारा (अभिहितौ) प्रेरित हुए (ते) तेरे (गावौ) ज्ञानेन्द्रिय वर्ग तथा कर्मेन्द्रिय वर्ग (सामनौ) शान्तिसम्पन्न हुए-हुए (ऐताम्) विचरे हैं। (ते) तेरे (चक्रे) मनरूपी रथ के दो पहिये (श्रोत्रे) वेद प्रतिपादित अभ्युदय और निःश्रेयस (आस्ताम्) रहे हैं, (दिवि) द्युलोक में (पन्थाः) जैसे मार्ग (चराचरः) चालु है [जिस में कि असंख्य तारे विचर रहे हैं] वैसे तेरा गृहस्थ जीवन का भी (पन्थाः) मार्ग है, जो कि (चराचरः) अनादिकाल से चलता आया है।
टिप्पणी -
[व्याख्या- मन्त्र ११ में गावौ शब्द द्विवचनान्त है, मन्त्र १० में अनड्वाहौ शब्द भी द्विवचनान्त है। ये दोनों शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। ज्ञानेन्द्रियवर्ग और कर्मेन्द्रियवर्ग इन द्वारा अभिप्रेत हैं। गौः शब्द इन्द्रियार्थक भी है, यह मन्त्र १० में दर्शाया जा चुका है। अनड्वाहौ शब्द भी मनरूपीरथ के वाहनों का निदर्शक होने से, "गावौ" अर्थ का द्योतक है। सूर्या की ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रियां सात्विक थीं, क्योंकि ये ऋग्वेद के ज्ञान, और सामवेद की उपासना द्वारा प्रेरित होती रही हैं। इसीलिये इन्हें "सामनौ" कहा है। साम सान्त्वप्रयोगे। श्रोत्र शब्द वेदवाचक है। इसी लिये वेदाध्येता को श्रोत्रिय कहते हैं। जो श्रोत्र अर्थात् वेद का अध्ययन करता है, उसे श्रोत्रिय कहते हैं। श्रोत्रियंश्छन्दोधीते (अष्टा० ५।२।८४), अर्थात् जो छन्दोमयी वेदवाणी का अध्ययन करता है, वह श्रोत्रिय१ है। श्रोत्रे पद द्विवचनान्त पठित है। वेद अभ्युदय-और-निःश्रेयस का वर्णन करते हैं, इस दृष्टि से श्रोत्रे पद द्विवचनान्त पठित है। ये दो सूर्या के मनरूपी रथ के दो पहिये हैं। पहिये रथ के संचालन में हेतु होते हैं। अभ्युदय और निःश्रेयस सूर्या के मनरूपी रथ के संचालक थे,—यह मन्त्र में सूचित किया गया है। साथ ही मन्त्र में यह भी दर्शाया है कि गृहस्थ पथ कोई हेय या बुरा पथ नहीं। यह पथ चराचर रहा है, सदा से यह चलता आया है। ऋषिमुनि भी इस पथ पर चलते रहे हैं। समग्र प्राणि जगत का यही पथ रहा है। अतः इस इस पथ पर चलना सांसारिक नियम है।] तथा [मन्त्र का आधिभौतिक अर्थ यह है कि "सूर्या के रथ के दो बैल स्तुति तथा सान्त्वना से चलाए गये शान्तिपूर्वक चले। रथ के दो पहिये श्रवणीय अर्थात् श्रवण२ सुभग थे, और रास्ता दिन में चला गया, जिस पर कि लोग दिन में चलते फिरते हैं। अर्थात् रात्रि के समय चराचर के अभाव में सूर्या का प्रस्थान न करना चाहिये।] [१. व्याकरण की दृष्टि से "छन्दस्” शब्द को "श्रोत्र" भाव निपात प्रयुक्त है, (अष्टा० ५।१।८४) की टिप्पणी, द्वारा ज्ञानेन्द्र सरस्वती, कौमुदी। छन्दस् का भी अभिप्राय छन्दोमयी वेदवाणी ही है। २. अर्थात् रथ के पहियों की ध्वनि सुनने में मधुर थी।]