अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 23
सूक्त - सोमार्क
देवता - बृहती गर्भा त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
पू॑र्वाप॒रंच॑रतो मा॒ययैतौ शिशू॒ क्रीड॑न्तौ॒ परि॑ यातोऽर्ण॒वम्। विश्वा॒न्यो भुव॑नावि॒चष्ट॑ ऋ॒तूँर॒न्यो वि॒दध॑ज्जायसे॒ नवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपू॒र्व॒ऽअ॒प॒रम् । च॒र॒त॒: । मा॒यया॑ । ए॒तौ । शिशू॒ इति॑ । क्रीड॑न्तौ । परि॑ । या॒त॒: । अ॒र्ण॒वम् । विश्वा॑ । अ॒न्य: । भुव॑ना । वि॒ऽचष्टे॑ । ऋ॒तून् । अ॒न्य: । वि॒ऽदध॑त् । जा॒य॒से॒ । नव॑: ॥१.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
पूर्वापरंचरतो माययैतौ शिशू क्रीडन्तौ परि यातोऽर्णवम्। विश्वान्यो भुवनाविचष्ट ऋतूँरन्यो विदधज्जायसे नवः ॥
स्वर रहित पद पाठपूर्वऽअपरम् । चरत: । मायया । एतौ । शिशू इति । क्रीडन्तौ । परि । यात: । अर्णवम् । विश्वा । अन्य: । भुवना । विऽचष्टे । ऋतून् । अन्य: । विऽदधत् । जायसे । नव: ॥१.२३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 23
भाषार्थ -
(एतौ) ये दोनों पति और पत्नी (मायया) प्रज्ञापूर्वक (पूर्वापरम्) पूर्व अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रम से गृहस्थाश्रम की ओर, गृहस्थाश्रम से वानप्रस्थाश्रम की ओर, वानप्रस्थाश्रम से संन्यासाश्रम की ओर (चरतः) विचरते हैं, और (शिशु) शिशुओं के सदृश (क्रीडन्तौ) खेलते हुए (अर्णवम्) गृहस्थ समुद्र को (परि) परित्याग करके (यातः) अगले आश्रम में चले जाते हैं। (अन्यः) एक अर्थात् पति (विश्वा भुवना) सभी गृहस्थ-भुवनों की (विचष्टे) देख-भाल करता है, और (अन्यः) दूसरी तू हे पत्नि ! (ऋतून्) ऋतुधर्मों को (विदधत्) प्रकट करती हुई (नवः) नवीन नवीन रूप में (जायसे) प्रकट होती रहती है ।
टिप्पणी -
[माया प्रज्ञानाम (निघं० ३।९)। परि (अर्णवम्) "अपपरी वर्जने" (अष्टा० १।४।८८); तथा “परेर्वचने वा वचनम्" द्वारा परि१ अर्णवम् यात्=अर्णवं गृहस्थाश्रमं परित्यज्य यातः। अर्णवम्=समुद्रम्। मनुस्मृति में गृहस्थ को सागर अर्थात् समुद्र से उपमित किया है। यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम् ।तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् ।।६/९० व्याख्या — मन्त्र में पति और पत्नी का वर्णन सूर्य और चन्द्र के दृष्टान्त द्वारा किया है। सूर्य और चन्द्र के सम्बन्ध में कहा है कि ये परमेश्वर की प्रज्ञा द्वारा अर्णव अर्थात् अन्तरिक्ष में पूर्व से पश्चिम तक विचरते हैं। सूर्य और चन्द्र परमेश्वर द्वारा दृढ़ नियम में गतियां कर रहे हैं, इनकी नियमबद्ध गतियों से इन के एक बुद्धिमान् नियन्ता का अनुमान होता है। उसी बुद्धिमान् की प्रज्ञा द्वारा प्रेरित हुए हुए ये पूर्व से पश्चिम की ओर नियमित गतियां कर रहे हैं। ये दोनों मानों परमेश्वरीय माता के शिशु हैं, जोकि अन्तरिक्ष की क्रीडाभूमि में खेल रहे हैं। इन में एक अर्थात् सूर्य मानो चलता हुआ निज सौर मण्डल के भुवनों का निरीक्षण करता हुआ उन्हें नियमों में चलाता है, और दूसरा अर्थात् चन्द्रमा ऋतुओं अर्थात् तिथि, सप्ताह, पक्ष और मासरूपी काल का निर्माण कर रहा है। चन्द्रमा की बढ़ती और घटती हुई कलाएं काल के परिज्ञान में स्पष्ट सहायक हैं। तथा यह चन्द्रमा कलाओं की क्षय तथा वृद्धि द्वारा नवीन नवीन रूप धारण करता हुआ मानो प्रतिमास पुनः पुनः पैदा होता है। पति सूर्य स्थानापन्न है और पत्नी चन्द्र स्थानापन्न। कारण यह है कि सूर्य शक्ति देता है और चन्द्रमा शक्ति लेता है। इसी प्रकार पति शक्ति प्रदान करता है और पत्नी शक्ति ग्रहण करती है। पति और पत्नी ब्रह्मचर्याश्रमरूपी पूर्वसमुद्र से गृहस्थाश्रमरूपी अपर समुद्र में आते हैं, और प्रज्ञा, अर्थात् निज बुद्धिमत्ता से गृहस्थाश्रम में विचरते हैं। प्रज्ञा और बुद्धिमत्ता के बिना ब्रह्मचर्य और गृहस्थ में विचरना दुष्कर है। प्रज्ञावान् ही निज प्रज्ञा-नौका के द्वारा सफलतापूर्वक इन आश्रमसमुद्रों से पार हो सकता है। मन्त्र में ब्रह्मचर्याश्रम से गृहस्थाश्रम जाने का विधान पति-पत्नी के लिए किया है। यही विधि अगले आश्रमों के सम्बन्धों में भी जाननी चाहिये। गृहस्थाश्रम में आकर, शिशू रूप से परस्पर हंसते-खेलते और आनन्दित तथा प्रसन्न होते हुए, पति और पत्नी को गृहस्थ जीवन बिताना चाहिये। गृहस्थ में तरह तरह के कष्टों और आपत्तियों का सामना करना पड़ता है। हंसी-खेल की तबियत वाले पति-पत्नी ही इन कष्टों तथा आपत्तियों का मुकाबिला बहादुरी के साथ कर पाते हैं। पति का गृहस्थ जीवन में सामान्य निरीक्षण होना चाहिये। पत्नी ऋतुओं अर्थात् ऋतुधर्मों को प्रकट करती हुई, ऋतुमती होती हुई, पुत्रों तथा पुत्रियों के रूप में नवीन नवीन रूपों में प्रकट होती रहती है। सन्तानों का निर्माण माता ही करती है। १० मास माता के पेट में रह कर बच्चा माता के संस्कारों से ही प्रभावित होता रहता है। जन्म के पश्चात् भी बाल्यावस्था में माता का ही प्रभाव बच्चों पर अधिकतर होता है, मानो माता ही पुत्रों तथा पुत्रियों के रूप में समय पर प्रकट होती रहती है। "आत्मा वै पुत्रनामासि”।] [१. "परि अर्णवम्" प्रयोग में "परित्रिगर्त वृष्टो देवः" के सदृश वर्जनार्थक परि के योग में द्वितीया विभक्ति है। यद्यपि वर्जनार्थक "परि" के योग में पञ्चमी विभक्ति भी होती है।]