अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
सूक्त - सोम
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
सोमे॑नादि॒त्याब॒लिनः॒ सोमे॑न पृथि॒वी म॒ही। अथो॒ नक्ष॑त्राणामे॒षामु॒पस्थे॒ सोम॒ आहि॑तः॥
स्वर सहित पद पाठसोमे॑न । आ॒दि॒त्या: । ब॒लिन॑: । सोमे॑न । पृ॒थि॒वी । म॒ही । अथो॒ इति॑ । नक्ष॑त्राणाम् । ए॒षाम् । उ॒पऽस्थे॑ । सोम॑: । आऽहि॑त: ॥१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमेनादित्याबलिनः सोमेन पृथिवी मही। अथो नक्षत्राणामेषामुपस्थे सोम आहितः॥
स्वर रहित पद पाठसोमेन । आदित्या: । बलिन: । सोमेन । पृथिवी । मही । अथो इति । नक्षत्राणाम् । एषाम् । उपऽस्थे । सोम: । आऽहित: ॥१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(सोमेन१) वीर्य द्वारा (आदित्याः) आदित्य ब्रह्मचारी (बलिनः) बलवान् होते हैं, (सोमेन) वीर्य द्वारा (पृथिवी) मातृशक्ति (मही) पूजनीया होती है। (अथो) तथा (एषाम्) इन (नक्षत्राणाम्) अक्षतवीर्यों तथा अक्षतयोनियों के (उपस्थे) उपस्थेन्द्रियों में (सोमः) वीर्य तथा रजस् (आहितः) स्थित होता है।
टिप्पणी -
[पृथिवी = स्त्री। मन्त्र १ में भूमि शब्द द्वारा स्त्री का निर्देश किया है। इस के लिये मन्त्र १ पर टिप्पणी द्रष्टव्य है। मही= मह पूजायाम्। नक्षत्राणाम् =न + क्षत् + र। अर्थात् अक्षतवीर्य और अक्षतयोनि वाले पुरुषों और स्त्रियों के। उपस्थे= जननेन्द्रिय में। सोम शब्द द्वारा पुरुषनिष्ठ और स्त्रीनिष्ठ सन्तानोत्पादक-तत्त्व अर्थात् वीर्य और रजस् अभिप्रेत है। व्याख्या-- आदित्य ब्रह्मचारी वीर्य द्वारा बलवान होते हैं। ४८ वर्षों का ब्रह्मचारी आदित्य ब्रह्मचारी कहलाता है। स्त्री-ब्रह्मचारिणी भी रजस् शक्ति के कारण पूजनीया होती है। स्त्री का स्थान वह है जो कि भूमि और पृथिवी का है। बंजर पृथिवी अनुत्पादिका होती है। बीज डालने पर पृथिवी जब हरी-भरी हो जाती है तब उस की शोभा होती है। इसी प्रकार पुरुष के वीर्यरूपी बीज के कारण जब माता की गोद मानो हरी-भरी हो जाती है, तब माता बन कर स्त्री, पूजा तथा मान का स्थान बन जाती है। जिन का वीर्य या रजस् ब्रह्मचर्याश्रम में क्षत नहीं होता उनके ही उपस्थेन्द्रियों में गृहस्थाश्रम के काल में, वीर्य उपस्थित होता है, और जिन का वीर्य क्षत होता रहता है वे निर्वीय हो जाते हैं, और गृहस्थ जीवन के उचित समय में उन की उपस्थेन्द्रियों में वीर्य की उपस्थिति नहीं होने पाती। वे सन्तान-कर्म के लिये निःशक्त हो जाते हैं। पृथिवी = प्रथ-विस्तारे। माता सन्तानों द्वारा समाज का विस्तार करती है।] [१. सोम शब्द यद्यपि वीर्यार्थक है। परन्तु इन मन्त्रों में "सन्तानोत्पादक-तत्त्व" अर्थ लेना चाहिये, जो कि सोम शब्द का धात्वर्थ है। अतः सोमशब्द द्वारा वीर्य और रजस् दोनों अर्थ अभिप्रेत है।]