अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 43
सूक्त - आत्मा
देवता - सोम
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
यथा॒सिन्धु॑र्न॒दीनां॒ साम्रा॑ज्यं सुषु॒वे वृषा॑। ए॒वा त्वं॑ स॒म्राज्ञ्ये॑धि॒पत्यु॒रस्तं॑ प॒रेत्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । सिन्धु॑: । न॒दीना॑म् । साम्ऽरा॑ज्यम् । सु॒सु॒वे । वृषा॑ । ए॒व । त्वम् । स॒म्ऽराज्ञी॑ । ए॒धि॒ । पत्यु॑: । अस्त॑म् । प॒रा॒ऽइत्य॑ ॥१.४३॥
स्वर रहित मन्त्र
यथासिन्धुर्नदीनां साम्राज्यं सुषुवे वृषा। एवा त्वं सम्राज्ञ्येधिपत्युरस्तं परेत्य ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । सिन्धु: । नदीनाम् । साम्ऽराज्यम् । सुसुवे । वृषा । एव । त्वम् । सम्ऽराज्ञी । एधि । पत्यु: । अस्तम् । पराऽइत्य ॥१.४३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 43
भाषार्थ -
(यथा) जैसे (वृषा) वर्षा करने वाले (सिन्धुः) समुद्र ने (नदीनाम्) नदियों का (साम्राज्यम्) सम्राट् होना (सुषुवे) प्राप्त किया है, (एवा=एवम्) इसी प्रकार (त्वम्) हे वधु! तू (पत्युः) पति के (अस्तम्) घर (परेत्य) जाकर, (सम्राज्ञी) राणी (एधि) बन।
टिप्पणी -
[व्याख्या— समुद्र का साम्राज्य नदियों पर है। नदियां अपनी जल सम्पत्ति समुद्र को भेंट करती है, चूंकि समुद्र नदियों का राजा है। इसी प्रकार गृहवासियों को चाहिये कि वे अपनी समग्र कमाई इस नववधू के प्रति भेंट कर दिया करें। क्योंकि नववधू पतिगृह की सम्राज्ञी है,. राणी है। परन्तु समुद्र नदियों द्वारा दी गई भेंट को निज स्वार्थ के लिए नहीं रख लेता। वह वृषा है, वर्षा का कारण है। नदियों द्वारा भेंट ले कर समुद्र, वर्षारूप में उस भेंट को पुनः नदियों तथा पृथिवी के अन्य पदार्थों के प्रति सौंप देता है। पत्नी को भी चाहिये प्राप्त कमाई को वह गृहवासियों की समुन्नति में व्यय करे। तथा समुद्र जल की वर्षा करता हुआ भी सदा भरा सा रहता है, इसी प्रकार पत्नी भी धन का व्यय इस विधि से करे कि वह व्यय करती हुई भी धन-सम्पत्ति से सदा परिपूर्ण रहे (देखो मन्त्र ७ की व्याख्या)। परन्तु पत्नी को यह ध्यान में रखना चाहिये कि गृह-साम्राज्य में पत्नी सम्राज्ञी है, तो गृह-साम्राज्य में पति सम्राट् है। शेष गृहवासी इन दोनों द्वारा पालनीय तथा रक्षणीय हैं। सम्राज्ञी सम्राट् के परामर्श द्वारा ही व्यय करे, अन्यथा नहीं। मन्त्र में राजा-प्रजा के पारस्परिक लेन-देन पर भी प्रकाश डाला है। राजा समुद्र के सदृश, प्रजा से कर लेकर, उस का व्यय प्रजा की भलाई के लिए करे, केवल स्वार्थ सिद्धि के लिए नहीं।]