अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 37
सूक्त - आत्मा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
यो अ॑नि॒ध्मोदी॒दय॑द॒प्स्वन्तर्यं विप्रा॑स॒ ईड॑ते अध्व॒रेषु॑। अपां॑ नपा॒न्मधु॑मतीर॒पोदा॒ याभि॒रिन्द्रो॑ वावृ॒धे वी॒र्यावान् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒नि॒ध्म: । दी॒दय॑त् । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । यम् । विप्रा॑स: । ईड॑ते । अ॒ध्व॒रेषु॑ । अपा॑म् । न॒पा॒त् । मधु॑ऽमती: । अ॒प: । दा॒: । याभि॑: । इन्द्र॑: । व॒वृ॒धे । वी॒र्य᳡वान् ॥१.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अनिध्मोदीदयदप्स्वन्तर्यं विप्रास ईडते अध्वरेषु। अपां नपान्मधुमतीरपोदा याभिरिन्द्रो वावृधे वीर्यावान् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अनिध्म: । दीदयत् । अप्ऽसु । अन्त: । यम् । विप्रास: । ईडते । अध्वरेषु । अपाम् । नपात् । मधुऽमती: । अप: । दा: । याभि: । इन्द्र: । ववृधे । वीर्यवान् ॥१.३७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 37
भाषार्थ -
(यः) जो परमात्माग्नि (अनिध्मः) विना इन्धन के (अप्सु अन्तः) रक्त तथा वीर्यरूपी जलों के भीतर (दीदयत्) प्रदीप्त होता है, (यम्) जिस की (विप्रासः) मेधावी लोग (अध्वरेषु) हिंसारहित ध्यान यज्ञों में (ईडते) स्तुति-उपासना करते हैं। (अपां नपात्) हे वीर्यरूपी जलों का न पतन होने देने वाले परमेश्वर! (मधुमतीः) मधुसदृश (अपः) वीर्यरूपी जल (दाः) हमें प्रदान कर, (याभिः) जिन वीर्यरूपी जलों द्वारा (इन्द्रः) इन्द्र (वीर्यावान्) वीर्यवाला हो कर (वावृधे) बढ़ता है।
टिप्पणी -
[अप्सु= वैदिक साहित्य में आपः का अर्थ रक्त तथा वीर्य भी होता है। बाह्य जगत् के जल का प्रतिनिधि, आध्यात्मिक अर्थो में, शरीरगत रक्त है। यथा “को अस्मिन्नापो व्यदधात्विषूवृतः पुरूवृतः सिन्धुसृत्याय जाताः। तीव्रा अरुणा लोहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा अवाचीः पुरुषे तिरश्चीः ॥" (अथर्व० १०।२।११)। अथर्व० १६।१।१-१३ में वीर्य का भी वर्णन आपः शब्द द्वारा हुआ है। दीदयत्= दीदयति ज्वलतिकर्मा (निघं० १।१६)। अपांनपात्=अपां+न+पात् (पत्) वीर्यरूपी जलों का न पतन होने देने वाला। इन्द्रः=आत्मा, अर्थात् आत्मिक शक्ति सम्पन्न व्यक्ति। वीर्यावान्=वीर्य सम्पन्न इन्द्र। इसी भावना से कहा है कि “वीर्य वा इन्द्रः" (तै० ब्रा० ९।७।५।८); “शिश्नमिन्द्रः" (शत० ब्रा० १२।९।१।१६); “रेत इन्द्रः" (शत० ब्रा० १२।९।१।१७)] [व्याख्या—वेदों में परमात्मा को अग्नि भी कहा है “तदेवाग्निस्तदादित्यः” (यजुः ३२।१)। परमात्मा प्रकाशस्वरूप है, अतः अग्नि है। वह भक्तों के पापों को भस्मीभूत कर देता है, अतः अग्नि है। परमात्माग्नि पार्थिव अग्नि जैसा नहीं जो कि इन्धन से प्रदीप्त होता है (अनिध्मः)। परमात्माग्नि जलों में प्रकट होता है। उपनिषदों में हृदय को परमात्माग्नि का स्थान कहा है। हृदय में रक्तरूपी जल का निवास है, और रक्त में वीर्य का निवास है। अतः मन्त्र में कहा है कि परमात्माग्नि जलों में प्रदीप्त होती है, और वीर्यवान् व्यक्ति ही योग के अष्टाङ्ग उपायों द्वारा परमात्मा का साक्षात् कर सकता है। योगदर्शन में वीर्य को योगसिद्धि में कारण कहा है। यथा “श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम" (योग १।२०)। वैदिक यज्ञ अध्वर है, हिंसा से रहित हैं। ऐसे यज्ञों में विप्र अर्थात् मेधावी जन ही परमात्मा की स्तुति उपासना तथा पूजा करते हैं। परमात्मा की कृपा वीर्यरूपी जल का पतन नहीं होने देती। जिस पुरुष में परमात्माग्नि का प्रकाश हुआ है वह गृहस्थ में भी ब्रह्मचर्य विधि से रहता है। उस का वीर्य कामवासना से प्रेरित हो कर पतित नहीं होता। “मधु" वर्णवाला वीर्य उत्तम गिना गया है। वीर्य द्वारा मनुष्य वीर्यवान् हो कर दीर्घायु होता है। गृहस्थ में उत्तम वीर्य की आवश्यकता होती है। इसलिये मन्त्र में उत्तम वीर्य की पहिचान, उस की रक्षा, उस का पतन न होने देना, और उस के लाभों का वर्णन हुआ है। विशेषः- आधिदैविक दृष्टि से मन्त्र का अर्थ अन्तरिक्षस्थ विद्युत् भी है। परन्तु गृहस्थ प्रकरण में विद्युत्-सम्बन्धी वर्णन अनुपयोगी है।]