अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 57
सूक्त - आत्मा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
अ॒हं विष्या॑मि॒मयि॑ रू॒पम॑स्या॒ वेद॒दित्प॑श्य॒न्मन॑सः कु॒लाय॑म्। न स्तेय॑मद्मि॒मन॒सोद॑मुच्ये स्व॒यं श्र॑थ्ना॒नो वरु॑णस्य॒ पाशा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । वि । स्या॒मि॒ । मयि॑ । रू॒पम् । अ॒स्या॒: । वेद॑त् । इत् । पश्य॑न् । मन॑स: । कु॒लाय॑म् । न । स्तेय॑म् । अ॒द्मि॒ । मन॑सा । उत् । अ॒मु॒च्ये॒ । स्व॒यम् । अ॒श्ना॒न: । वरु॑णस्य । पाशा॑न् ॥१.५७॥
स्वर रहित मन्त्र
अहं विष्यामिमयि रूपमस्या वेददित्पश्यन्मनसः कुलायम्। न स्तेयमद्मिमनसोदमुच्ये स्वयं श्रथ्नानो वरुणस्य पाशान् ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । वि । स्यामि । मयि । रूपम् । अस्या: । वेदत् । इत् । पश्यन् । मनस: । कुलायम् । न । स्तेयम् । अद्मि । मनसा । उत् । अमुच्ये । स्वयम् । अश्नान: । वरुणस्य । पाशान् ॥१.५७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 57
भाषार्थ -
(अहम्) मैं पति (अस्याः) इस पत्नी के (रूपम्) स्वरूप को (मयि) अपने में (विष्यामि) बान्ध लेता हूं, (मनसः) अपने मनरूपी पक्षी का (कुलायम्) घोंसला (वेदत्) इस पत्नी को जानता हुआ, (पश्यन्) और देखता हुआ। (स्तेयम्) पत्नी से चुराकर (न अद्मि) मैं नहीं खाता। (मनसा) मन से अर्थात् स्वेच्छापूर्वक (उद् अमुच्ये) चोरी से खाना मैं छोड़ देता हूं, इस प्रकार (वरुणस्य) श्रेष्ठ परमेश्वर के (पाशान्) प्रेमबन्धनों को (स्वयम्) अपने-आप अर्थात् स्वेच्छापूर्वक (श्रथ्नानः)१ मैं दृढ़बद्ध करता हूं।
टिप्पणी -
[विष्यामि= वि (विशेषतया) + षिञ्, (बन्धने)। (श्रथ्नानः=श्रथन = Tying, Binding (आप्टे)] [व्याख्या—पति कहता है कि मैं पत्नी के दोनों स्वरूपों को,- शारीरिक तथा मानसिक स्वरूपों को, निज हृदय में बांध लेता हूं। अभिप्राय यह कि मैं इन स्वरूपों का सदा ध्यान करता हुआ पत्नीव्रत के मार्ग से विचलित न हूंगा। पति यह भी कहता है कि मैं अपने मनरूपी पक्षी का घोंसला इस पत्नी को जान रहा हूं, और साक्षात् देख रहा हूं। घोंसले में पक्षी अपने आप को सुरक्षित तथा निश्चिन्त पाता है, इसी प्रकार पति कहता है कि विचारशीला और सौन्दर्य की प्रतिमारूप पत्नी को पा कर मेरा मन भटकेंगा नहीं। पति यह भी प्रण करता है कि वह पत्नी से छिप कर कोई अन्नभोग न करेगा, अपितु हम दोनों का खान-पान इकट्ठा हुआ करेगा। छिप कर खान-पान के मानसिक विचार को भी त्याग देने का प्रण पति करता है। "मनसोदमुच्ये" - का यह अभिप्राय है। अन्त में पति कहता है कि इस प्रकार स्वयं मैं गृहस्थ जीवन में परमेश्वरीय प्रेमपाशों को दृढ़ बद्ध करता रहूंगा, ताकि हम में पारस्परिक अनुराग बढ़ता जाए, और हमारे गृहस्थजीवन में विराग, द्वेष तथा परस्परोपेक्षा का लेशमात्र भी न रहे।] [१. भाष्यकारों ने श्रथ्नानः का अर्थ किया है, शिथिल करता हुआ, ढीला करता हुआ। यह अर्थ मन्त्रोक्त भावनाओं के विपरीत है। पत्नी के स्वरूपों को चित्त में बांधना उसे अपने मन का घोंसला जानना तथा पृथक् अन्नग्रहण का विचार भी न करना,-इस से प्रेमपाश दृढ़ होते हैं, न कि शिथिल।]