अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 35
सूक्त - आत्मा
देवता - सोम
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
यच्च॒ वर्चो॑अ॒क्षेषु॒ सुरा॑यां च॒ यदाहि॑तम्। यद्गोष्व॑श्विना॒ वर्च॒स्तेने॒मांवर्च॑सावतम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । च॒ । वर्च॑: । अ॒क्षेषु॑ । सुरा॑याम् । च॒ । यत् । आऽहि॑तम् । यत् । गोषु॑ । अ॒श्विना॑ । वर्च॑: । तेन॑ । इ॒माम् । वर्च॑सा । अ॒व॒त॒म् ॥१.३५॥
स्वर रहित मन्त्र
यच्च वर्चोअक्षेषु सुरायां च यदाहितम्। यद्गोष्वश्विना वर्चस्तेनेमांवर्चसावतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । च । वर्च: । अक्षेषु । सुरायाम् । च । यत् । आऽहितम् । यत् । गोषु । अश्विना । वर्च: । तेन । इमाम् । वर्चसा । अवतम् ॥१.३५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 35
भाषार्थ -
(अक्षेषु) रथों की धुराओं में (यत्) जो (वर्चः) तेज (आहितम्) निहित है, (च) और (सुरायाम्) जल में (यद्) जो तेज निहित है, (च) और (यत्) जो (वर्चः) तेज, (अश्विना) हे वर के माता-पिता! (गोषु) गौओं में निहित है, (तेन) उस उस (वर्चसा) तेज द्वारा (इमाम्) इस वधू को (अवतम्) दीप्ति सम्पन्न करो।
टिप्पणी -
[सुरा उदकनाम (निघं० १।१२) अवतम्=अव गति, रक्षण, कान्ति, दीप्ति आदि। आहितम्=अथवा “कथितम्"। यथा “ब्राह्मणे इदमाहितम्"। अक्ष=Axis, Axie (आप्टे)] [व्याख्या— “अश्विना" द्वारा वर के माता-पिता का निर्देश हुआ है। (मन्त्र ८, १४, २०)। वर के माता-पिता वधू में ३ तेज स्थापित करें। (१) रथ की धुरा का तेज। (२) जल का तेज। (३) गोओं का तेज। रथ के दो चक्रों या पहियों में लगे दण्ड को अक्ष [मन्त्र १२] अर्थात् धुरा कहते हैं। इस धुरा पर सम्पूर्ण रथ अवलम्बित रहता है, धुरा सम्पूर्ण रथ का आधार होती है। अतः धुरा में तेज है “आधाररूपी गुण"। नववधू को शिक्षा देनी चाहिये कि तू ही इस गृहस्थ-रथ का आधार है। जल का स्वभाव है शीतलता। शीतलता जल का तेज है। नववधू को जल के दृष्टान्त द्वारा शीतलता, क्षमा, शान्ति का उपदेश देना चाहिए। गौ सात्विक दूध द्वारा मातृवत् पालन-पोषण करती है। अतः गौओं में तेज है “मातृवत् पालकतारूपी गुण। पत्नी भी पालन-पोषण की दृष्टि से गोरूप वाली होनी चाहिये।