अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 20
सूक्त - आत्मा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
भग॑स्त्वे॒तोन॑यतु हस्त॒गृह्या॒श्विना॑ त्वा॒ प्र व॑हतां॒ रथे॑न। गृ॒हान्ग॑च्छ गृ॒हप॑त्नी॒यथासो॑ व॒शिनी॒ त्वं वि॒दथ॒मा व॑दासि ॥
स्वर सहित पद पाठभग॑: । त्वा॒ । इ॒त: । न॒य॒तु॒ । ह॒स्त॒ऽगृह्य॑ । अ॒श्विना॑ । त्वा॒ । प्र । व॒ह॒ता॒म् । रथे॑न । गृ॒हान् । ग॒च्छ॒ । गृ॒हऽप॑त्नी । यथा॑ । अस॑: । व॒शिनी॑ । त्वम् । वि॒दथ॑म् । आ । व॒दा॒सि॒ ॥१.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
भगस्त्वेतोनयतु हस्तगृह्याश्विना त्वा प्र वहतां रथेन। गृहान्गच्छ गृहपत्नीयथासो वशिनी त्वं विदथमा वदासि ॥
स्वर रहित पद पाठभग: । त्वा । इत: । नयतु । हस्तऽगृह्य । अश्विना । त्वा । प्र । वहताम् । रथेन । गृहान् । गच्छ । गृहऽपत्नी । यथा । अस: । वशिनी । त्वम् । विदथम् । आ । वदासि ॥१.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 20
भाषार्थ -
(भगः) ६ भगों से सम्पन्न पति (त्वा) हे पुत्रि ! तुझे (हस्तगृह्य) तेरा हाथ पकड़ कर (नयतु) ले चले, (अश्विना) वर के माता-पिता (त्वा) तुझे (रथेन) रथ द्वारा (प्रवहताम्) सुखपूर्वक घर पहुंचाए। हे पुत्रि ! (गृहान्) पति के गृहवासियों की ओर (गच्छ) तू जा, (यथा) ताकि (पत्नी) पतिगृह की स्वामिनी (असः) तू हो सके, (वशिनी) पुत्रों और भृत्य आदि को वश में रखने वाली हो कर (त्वम्) तू (विदथम्) उन्हें कर्त्तव्यज्ञान का (आ वदासि) निरन्तर कथन किया कर।
टिप्पणी -
[भगः=मन्त्र १८; सुभगा पद की व्याख्या में। प्र वहताम् = प्र+वह (प्रापणे)। गृहान् = गृहाः दाराः, तथा अन्य गृहवासी] [व्याख्या - पिता पुत्री को कहता है कि हे पुत्रि ! तेरा यह पति भगस्वरूप या भगों वाला है (अर्श आद्यच्) यह प्राकृतिक और आध्यात्मिक सम्पत्तियों से सम्पन्न है, धर्मात्मा तथा यशस्वी है, ज्ञानी तथा वैराग्यवान् है। इस कथन द्वारा पुत्री को पिता पति के सद्गुणों का परिज्ञान देता है, ताकि पति पर कन्या भरोसा, विश्वास, तथा श्रद्धा कर सके। पत्नी को पति, पितृगृह से, हाथ पकड़ कर रथ तक ले चले, तत्पश्चात् पति के माता-पिता की सुरक्षा में पत्नी, पतिगृह को रथ द्वारा जाए। कन्या का पिता पुत्री को यह भी उपदेश देता है कि तू पति के घर जा कर अपने सद्गुणों के कारण पतिगृह की स्वामिनी बन। पत्नीगृह की तथा गृहवासियों की सच्ची स्वामिनी तभी बन सकती है जब कि वह अपने सेवाभाव तथा कर्त्तव्यभावना से सब गृहवासियों के मनों को मोह ले। गृहपत्नी का एक और भी अभिप्राय है। वह यह है कि विवाह के समय ही पत्नी, पतिगृह की स्वामिनी अर्थात् उत्तराधिकारिणी उद्घोषित कर दी गई है। मानो यह पत्नी का कानूनन हक उद्घोषित किया गया है।]