अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 22
सूक्त - आत्मा
देवता - आत्मा
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
इ॒हैव स्तं॒ मावि यौ॑ष्टं॒ विश्व॒मायु॒र्व्यश्नुतम्। क्रीड॑न्तौपु॒त्रैर्नप्तृ॑भि॒र्मोद॑मानौ स्वस्त॒कौ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । ए॒व । स्त॒म् । मा । वि । यौ॒ष्ट॒म् । विश्व॑म् । आयु॑: । वि । अ॒श्नु॒त॒म् । क्रीड॑न्तौ । पु॒त्रै: । नप्तृ॑ऽभि: । मोद॑मानौ । सु॒ऽअ॒स्त॒कौ ॥१.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
इहैव स्तं मावि यौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम्। क्रीडन्तौपुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वस्तकौ ॥
स्वर रहित पद पाठइह । एव । स्तम् । मा । वि । यौष्टम् । विश्वम् । आयु: । वि । अश्नुतम् । क्रीडन्तौ । पुत्रै: । नप्तृऽभि: । मोदमानौ । सुऽअस्तकौ ॥१.२२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 22
भाषार्थ -
(इह) इस गृहस्थजीवन में (एव) ही (स्तम्) रहो, (मा) न (वियौष्टम्) परस्पर वियोग को प्राप्त होओ। (पुत्रैः) पुत्रों के साथ, (नप्तृभिः) पौत्रों और दौहित्रों के साथ (क्रीडन्तौ) खेलते हुए, (मोदमानौ) आनन्द प्रसन्न होते हुए, (स्वस्तकौ) घर के जीवन को उत्तम बनाते हुए, (विश्वम्, आयुः) पूर्ण आयु को (व्यश्नुतम्) भोगो या प्राप्त करो।
टिप्पणी -
[व्याख्या - कन्या का पिता वर-वधू दोनों को आशीर्वाद देता हुआ कहता है कि (१) तुम दोनों गृहस्थ जीवन में पति-पत्नीभाव से बने रहो। (२) परस्पर पति-पत्नीभाव के सम्बन्ध का विच्छेद न करो, न परस्पर तलाक दो, और न एक दूसरे से चिरकाल तक अलग रहो। (३) गृहस्थ में जीवनों को नियमपूर्वक रखो ताकि तुम अपनी १०० वर्षों की पूर्ण आयु भोग सको। (४) पुत्रों, पौत्रों, दौहित्रों के साथ खेला करो, और परस्पर आनन्द-प्रसन्न रहो। (५) घर को शिष्टाचार आदि द्वारा उत्तम बनाओ तथा उसे साफ-सुथरा और रम्य बनाओ।]