अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 41
सूक्त - आत्मा
देवता - सोम
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
खे रथ॑स्य॒ खेऽन॑सः॒ खे यु॒गस्य॑ शतक्रतो। अ॑पा॒लामि॑न्द्र॒ त्रिष्पू॒त्वाकृ॑णोः॒सूर्य॑त्वचम् ॥
स्वर सहित पद पाठखे । रथ॑स्य । खे । अन॑स: । खे । यु॒गस्य॑ । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतक्रतो । अ॒पा॒लाम् । इ॒न्द्र॒ । त्रि: । पू॒त्वा । अकृ॑णो: । सूर्य॑ऽत्ववचम् ॥१.४१॥
स्वर रहित मन्त्र
खे रथस्य खेऽनसः खे युगस्य शतक्रतो। अपालामिन्द्र त्रिष्पूत्वाकृणोःसूर्यत्वचम् ॥
स्वर रहित पद पाठखे । रथस्य । खे । अनस: । खे । युगस्य । शतक्रतो इति शतक्रतो । अपालाम् । इन्द्र । त्रि: । पूत्वा । अकृणो: । सूर्यऽत्ववचम् ॥१.४१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 41
भाषार्थ -
(शतक्रतो) हे सौ वर्षों की आयु में कर्मशील, यज्ञशील तथा उत्तम संकल्पों वाले! तथा (इन्द्र) हे आत्मिक शक्ति सम्पन्न पति! तूने (रथस्य) शरीर-रथ के (खे) आनन्द में, (अनसः) अन्न के (खे) आनन्द में, (युगस्य) पति-पत्नी के जोड़े के (खे) आनन्द में, (अपालाम्) तेरे विना अन्य जिस का पालक नहीं,-ऐसी पत्नी को, (त्रिः) इन तीन प्रकारों से (पूत्वा) पवित्र करके, (सूर्यत्वचम्) सूर्य की त्वचा अर्थात् किरणों के सदृश चमका दिया है, पवित्र कर दिया है।
टिप्पणी -
[रथस्य= “आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु" (कठ, उप० ३।३)। खे=आनन्दे, Happiness, pleasure (आप्टे)। अनस्=अन्न (उ० ४।१९०, महर्षि दयानन्द), “अनिति जीवति येनेति अनः, ओदनं पदवान्नं वा"। क्रतुः=कर्म (निघं० २।१); प्रज्ञा (३।९)। प्रज्ञा, यज्ञ (उणा० १।७६) महर्षि दयानन्द] [व्याख्या— पति का कर्त्तव्य है कि वह पत्नी को ऐसा उपदेश दिया करे ताकि पत्नी तीन प्रकार के आनन्दों में पवित्र हो जाए। वे तीन आनन्द हैं शारीरिक आनन्द, अन्न का आनन्द, तथा पति-पत्नी के जोड़े का आनन्द। पत्नी अपने शारीरिक आनन्द को अपवित्र न होने दे। दैनिक स्नान, उद्यम और निरालसता, तथा विषय वासना का नियन्त्रण शारीरिक पवित्रता है। अन्न को दोषरहित, स्वादु तथा पुष्टिकारक बनाना, और राजस तथा तामस अन्नों का सेवन न करना अन्न सम्बन्धी पवित्रता है। पति और पत्नी के पृथक् पृथक् हो जाने से, परस्पर लड़ाई और मनमुटावों से, दोनों के सहवास जन्य आनन्द में तथा पवित्रता में अन्तर आ जाता है। पत्नी की पवित्रता में सूर्यत्वचा अर्थात् सूर्य की किरणों का दृष्टान्त दिया है। सूर्य की किरणें स्वयं सदा पवित्र, तथा अन्य अपवित्र पदार्थों तथा स्थलों को भी पवित्र कर देती हैं। पत्नी भी पवित्रता में सूर्य की किरणों के सदृश स्वयं पवित्र होनी चाहिये। उस के स्वयं पवित्र होने पर, उस के संपर्क से अन्य अपवित्र भी पवित्र हो जाते हैं। पत्नी में इन तीन पवित्रताओं का डालने वाला पति भी स्वयं पवित्र होना चाहिये। इस लिये पति को शतक्रतु और इन्द्र कहा है। जो उत्तम कर्मों वाला, यज्ञशील, उत्तम संकल्पों वाला, तथा आत्मशक्ति सम्पन्न है,-वह अपवित्र हो ही नहीं सकता। पत्नी को मन्त्र में अपाला कहा है। विवाह के पश्चात् पत्नी और सन्तानों को पालना पति का कर्त्तव्य है। पत्नी का कर्त्तव्य है गृहव्यवस्था तथा सन्तानों की देखभाल तथा सुशिक्षा। पति और पत्नी दोनों ही नौकरी में लगे रहें तो न गृहव्यवस्था रह सकती है, और न सन्तानों की देखभाल और न सुशिक्षा ही हो सकती है।