अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 33
सूक्त - आत्मा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
इ॒मं गा॑वःप्र॒जया॒ सं वि॑शाथा॒यं दे॒वानां॒ न मि॑नाति भा॒गम्। अ॒स्मै वः॑ पू॒षाम॒रुत॑श्च॒ सर्वे॑ अ॒स्मै वो॑ धा॒ता स॑वि॒ता सु॑वाति ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । गा॒व॒: । प्र॒ऽजया॑ । सम् । वि॒शा॒थ॒ । अ॒यम् । दे॒वाना॑म् । न । मि॒ना॒ति॒ । भा॒गम् । अ॒स्मै । व॒: । पू॒षा । म॒रुत॑: । च॒ । सर्वे॑ । अ॒स्मै । व॒: । धा॒ता । स॒वि॒ता। सु॒वा॒ति॒ ॥१.३३॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं गावःप्रजया सं विशाथायं देवानां न मिनाति भागम्। अस्मै वः पूषामरुतश्च सर्वे अस्मै वो धाता सविता सुवाति ॥
स्वर रहित पद पाठइमम् । गाव: । प्रऽजया । सम् । विशाथ । अयम् । देवानाम् । न । मिनाति । भागम् । अस्मै । व: । पूषा । मरुत: । च । सर्वे । अस्मै । व: । धाता । सविता। सुवाति ॥१.३३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 33
भाषार्थ -
(गावः) हे गौओ! (इमम्) इस घर में (प्रजया) बछड़ा या बछड़ी समेत (सं विशाथ) मिलकर प्रवेश करो, ताकि (अयम्) यह गृहपति (देवानाम्, भागम्) देवों के भाग को (न मिनाति) नष्ट या विलुप्त न करे। (पूषा) परिपुष्ट गृहपति, (सर्वे मरुतः) सब मानसून१ वायुएं, या यज्ञशील गृहवासी, (धाता) पृथिवी या धारणपोषण करने वाला गोपाल अर्थात् ग्वाला, तथा (सविता) गृहपत्नी का या पति का उत्पादक पिता (वः) हे गौओ! तुम्हें (अस्मै) इस घर के लिए (सुवाति) प्रेरित करे।
टिप्पणी -
[पूषा] पूषा पुत्रः, विवाहित गृहपति (मन्त्र १५)। मरुतः=मानसून वायुएं। यथा “अपः समुद्राद्दिवमुद्वहन्ति दिवस्पृथिवीमभि ये सृजन्ति। ये अद्भिरीशाना मरुतश्चरन्ति ते नो मुञ्चन्त्वंहसः (अथर्व० ४।२७।४)। तथा मरुतः त्र त्विजः (निघं० ३।१८) अर्थात् ऋतु-ऋतु में यज्ञ करने वाले यज्ञशील गृहवासी। धाता=धा धारण पोषणयोः, या पृथिवी२। “इयं (पृथिवी) वै धाता (तै० ब्रा० ३।८।२३।३)। सविता=पत्नी का पिता (मन्त्र ९, १९); या पति का पिता] व्याख्या—गौएं ऐसी खरीदनी चाहियें जिन के साथ बछड़े-बछड़ियां हों, ताकि वे दूध दे सकें। अतः प्रजा समेत गौओं का गृहपति के घर प्रवेश करना चाहिये। गौएं घर में होने पर उन के दूध, घृत द्वारा देवयज्ञ करने चाहियें, ताकि देवों को उन का भाग मिलता रहे। अग्निहोत्र, दर्शपौर्णमास आदि देवयज्ञ हैं। इसी प्रकार दूध, दही, घृत आदि द्वारा अतिथि देव, मातृदेव, पितृदेव, आचार्य देव आदि का सत्कार करना भी देवयज्ञ है। मन्त्र ९ में पूषा द्वारा परिपुष्ट वर का वर्णन हुआ है। अपनी परिपुष्टि को बनाए रखने के लिए उसे चाहिये कि वह घर में गौएं सदा रखे। सविता पिता है वधू का। वैदिक विवाह विधि में सविता, वर को गोदान करे ऐसा विधान है, जोकि इस मन्त्र द्वारा अनुमोदित हुआ है। प्रकरणानुसार पतिगृह में सविता है, पति का पिता। गौओं को चराने के लिए ग्वाले की भी आवश्यकता होती है। तथा गौओं के चारे के लिए कृषियोग्य भूमि भी चाहिये। इन दोनों के लिए “धाता" शब्द का प्रयोग मन्त्र में हुआ है। इसी प्रकार मानसून वायु कृषिकर्म में सहायक है, जिस से कि गौओं को चारा मिल सके। गौओं के होते गृहवासियों को यज्ञशील होना चाहिये। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित मन्त्र द्रष्टव्य है, यथा— किं ते कृण्वन्ति कीकटेषु गावो नाशिरं दुह्रे न तपन्ति घर्मम्। आ नो भर प्रमगन्दस्य वेदो नैचाशाखं मघवन्रन्धया नः॥ ऋ० ३।५३।१४॥ हे परमेश्वर! कृपण लोगों में स्थित तेरी गौएं किस प्रयोजन को सिद्ध करती हैं, जो कि न तो स्तनपक्व दूध ही देती हैं, और न उन के दूध द्वारा उन के स्वामी यज्ञाग्नि को ही तपाते हैं……। आशिरम्=आ+श्रीञ् पाके+क्विप्; श्री को शिर आदेश (अष्टा० ६।१।३६)। धर्मः यज्ञनाम (निघं० ३।१७)।][१. मानसून वायु जल के अभाव को दूर करती, तथा खेती के लिए उपकारी है। २. गौओं के चारे के लिए पृथिवी की भी आवश्यकता है, ताकि गौओं के चारे की कमी अनुभव न हो। गावः में बहुवचन है, ताकि दुग्ध-घृत प्रभूत मात्रा में, तथा बछड़े-वैल कृषि कर्म के लिए प्राप्त हो सकें।]