अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 54
सूक्त - आत्मा
देवता - भुरिक् त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
इ॑न्द्रा॒ग्नीद्यावा॑पृथि॒वी मा॑त॒रिश्वा॑ मि॒त्रावरु॑णा॒ भगो॑ अ॒श्विनो॒भा।बृह॒स्पति॑र्म॒रुतो॒ ब्रह्म॒ सोम॑ इ॒मां नारीं॑ प्र॒जया॑ वर्धयन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । मा॒त॒रिश्वा॑ । मि॒त्रावरु॑णा । भग॑: । अ॒श्विना॑ । उ॒भा । बृह॒स्पति॑: । म॒रुत॑: । ब्रह्म॑ । सोम॑: । इ॒माम् । नारी॑म् । प्र॒ऽजया॑ । व॒र्ध॒य॒न्तु॒ ॥१.५४॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राग्नीद्यावापृथिवी मातरिश्वा मित्रावरुणा भगो अश्विनोभा।बृहस्पतिर्मरुतो ब्रह्म सोम इमां नारीं प्रजया वर्धयन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राग्नी इति । द्यावापृथिवी इति । मातरिश्वा । मित्रावरुणा । भग: । अश्विना । उभा । बृहस्पति: । मरुत: । ब्रह्म । सोम: । इमाम् । नारीम् । प्रऽजया । वर्धयन्तु ॥१.५४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 54
भाषार्थ -
(इन्द्राग्नी) विद्युत् और अग्नि, (द्यावापृथिवी) चमकता सूर्य तथा विस्तृत भूमि, (मातरिश्वा) अन्तरिक्षीय वायु, (मित्रावरुणा) दिन और रात, (भगः) ऐश्वर्य आदि छः, (उभा) दोनों (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा, (बृहस्पतिः) वेदों का विद्वान् पुरोहित, (मरुतः) मानसून वायुएं, (ब्रह्म) वेदस्वाध्याय, (सोमः) वीर्यरक्षा तथा सोम आदि ओषधियों का सेवन, – (इमाम्, नारीम्) इस नारी को (प्रजया) प्रजासमेत (वर्धयन्तु) बढ़ाएं।
टिप्पणी -
[इन्द्रः=इन्द्रः अन्तरिक्षस्थानः (निरु० ७।२।५), अर्थात् इन्द्र का स्थान है अन्तरिक्ष। अतः इन्द्र=विद्युत्। मातरिश्वा = वायुः; "मातर्यन्तरिक्षे श्वसिति, मातर्याश्वनितीति वा" (निरु० ७।७।२६)। मित्रावरुणा=अहोरात्रौ (तां० २५।१०।१०)। भगः- ऐश्वर्य, धर्म, ज्ञान, वैराग्य। अश्विना= सूर्याचन्द्रमसावित्येके (निरु० १२।१।१)। मरुतः= मानसून वायु। यथा "अपः समुद्राद्दिवमुद्वहन्ति दिवस्पृथिवीमभि ये सृजन्ति। ये अद्भिरीशाना मरुतश्चरन्ति ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥" (अथर्व० ४।२७।४)। ब्रह्म= वेद स्वाध्याय (अथर्व० १४।१।१।६४)। सोमः = उत्पादक वीर्य, रजस् (अथर्व० १४।१।१।२-५), तथा सोम ओषधि] [व्याख्या - स्वास्थ्य-वर्धन के लिए पहला साधन दर्शाया है इन्द्र अर्थात् विद्युत्। विद्युत् द्वारा चिकित्सा तथा गृह्यप्रयोगों में इस का उपयोग। दूसरा साधन है अग्नि। अग्निहोत्र और ऋतुयज्ञों द्वारा, तथा गार्हपत्याग्नि द्वारा घर तथा बाहर के वायुमण्डल की शुद्धि। तीसरा साधन है द्यौः, अर्थात् कमरों में प्रकाश का होना अर्थात् सूर्य की किरणों का प्रवेश। चौथा साधन है पृथिवी। स्वास्थ्यवर्धन के लिए मकान की भूमि विस्तृत होनी चाहिये, तथा घर स्वास्थ्यकारी पृथिवी पर बनाना चाहिये। पृथिवी= प्रथ विस्तारे। पांचवा साधन है मातरिश्वा अर्थात् वायु। मकानों का इस विधि से निर्माण करना जिस से कमरों में वायु का संचार हो सके। छटा साधन है दिन और रात का नियमपूर्वक होना। लम्बे दिनों तथा लम्बी रातों वाले प्रदेशों में स्वास्थ्य ठीक नहीं रह सकता। जैसे कि उत्तरध्रुव, दक्षिणध्रुव तथा इन के समीप के प्रदेश। सातवां साधन है भग अर्थात् ऐश्वर्य का होना, धर्मानुसार जीवन, स्वास्थ्य की विधियों का परिज्ञान, और गृहजीवन में भी वैराग्य अर्थात् अतिभाग से विराम। सूर्य और चन्द्र के प्रकाशों का सेवन भी स्वास्थ्यवर्धक है। इसी प्रकार पुरोहित-प्रथा का जारी रखना अर्थात् पुरोहितों द्वारा घरों में धार्मिक कृत्यों, यज्ञों तथा संस्कारों को कराते रहना। मानसून वायु चित्त को प्रसन्न करती, ग्रीष्म ऋतु की गरमी को कम करती, कृषिकर्म को बढ़ाकर, अन्न और ओषधियों को पैदा करती, जिन के सेवन से स्वास्थ्य बढ़ता है। इसी प्रकार ब्रह्मोपासना, तथा वैदिक स्वाध्याय द्वारा स्वास्थ्यवर्धक साधनों के परिज्ञान में स्वास्थ्यवृद्धि होती है। सोमशक्ति का संयम पूर्वक-प्रयोग तथा सोम आदि ओषधियों के सेवन से भी स्वास्थ्यवृद्धि होती है।