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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 10
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - वसवो देवताः छन्दः - विराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    राज्ञ्य॑सि॒ प्राची॒ दिग्वस॑वस्ते दे॒वाऽअधि॑पतयो॒ऽग्निर्हे॑ती॒नां प्र॑तिध॒र्त्ता त्रि॒वृत् त्वा॒ स्तोमः॑ पृथि॒व्याश्र॑य॒त्वाज्य॑मु॒क्थमव्य॑थायै स्तभ्नातु रथन्त॒रꣳसाम॒ प्रति॑ष्ठित्याऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ऽऋष॑यस्त्वा प्रथम॒जा दे॒वेषु॑ दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थन्तु विध॒र्त्ता चा॒यमधि॑पतिश्च॒ ते त्वा॒ सर्वे॑ संविदा॒ना नाक॑स्य पृ॒ष्ठे स्व॒र्गे लो॒के यज॑मानं च सादयन्तु॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    राज्ञी॑। अ॒सि॒। प्राची॑। दिक्। वस॑वः। ते॒। दे॒वाः। अधि॑पत॒य इत्यधि॑ऽपतयः। अ॒ग्निः। हे॒ती॒नाम्। प्र॒ति॒ध॒र्त्तेति॑ प्रतिऽध॒र्त्ता। त्रि॒वृदिति॑ त्रि॒ऽवृत्। त्वा॒। स्तोमः॑। पृ॒थि॒व्याम्। श्र॒य॒तु॒। आज्य॑म्। उ॒क्थम्। अव्य॑थायै। स्त॒भ्ना॒तु॒। र॒थ॒न्त॒रमिति॑ रथम्ऽत॒रम्। साम॑। प्रति॑ष्ठित्यै। प्रति॑स्थित्या॒ इति॒ प्रति॑ऽस्थित्यै। अ॒न्तरि॑क्षे। ऋष॑यः। त्वा॒। प्र॒थ॒म॒जा इति॑ प्रथम॒ऽजाः। दे॒वेषु॑। दि॒वः। मात्र॑या। व॒रि॒म्णा। प्र॒थ॒न्तु॒। वि॒ध॒र्त्तेति॑ विऽध॒र्त्ता। च॒। अ॒यम्। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। च॒। ते। त्वा॒। सर्वे॑। सं॒वि॒दा॒ना इति॑ सम्ऽवि॒दा॒नाः। नाक॑स्य। पृ॒ष्ठे। स्व॒र्ग इति॑ स्वः॒ऽगे। लो॒के। यज॑मानम्। च॒। सा॒द॒य॒न्तु॒ ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    राज्ञ्यसि प्राची दिग्वसवस्ते देवाऽअधिपतयोग्निर्हेतीनाम्प्रतिधर्ता त्रिवृत्त्वा स्तोमः पृथिव्याँ श्रयत्वाज्यमुक्थमव्यथायै स्तभ्नातु रथन्तरँ साम प्रतिष्ठत्याऽअन्तरिक्षऽऋषयस्त्वा प्रथमजा देवेषु दिवो मात्रया वरिम्णा प्रथन्तु विधर्ता चायमधिपतिश्च ते त्वा सर्वे सँविदाता नाकस्य पृष्ठे स्वर्गे लोके यजमानञ्च सादयन्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    राज्ञी। असि। प्राची। दिक्। वसवः। ते। देवाः। अधिपतय इत्यधिऽपतयः। अग्निः। हेतीनाम्। प्रतिधर्त्तेति प्रतिऽधर्त्ता। त्रिवृदिति त्रिऽवृत्। त्वा। स्तोमः। पृथिव्याम्। श्रयतु। आज्यम्। उक्थम्। अव्यथायै। स्तभ्नातु। रथन्तरमिति रथम्ऽतरम्। साम। प्रतिष्ठित्यै। प्रतिस्थित्या इति प्रतिऽस्थित्यै। अन्तरिक्षे। ऋषयः। त्वा। प्रथमजा इति प्रथमऽजाः। देवेषु। दिवः। मात्रया। वरिम्णा। प्रथन्तु। विधर्त्तेति विऽधर्त्ता। च। अयम्। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। च। ते। त्वा। सर्वे। संविदाना इति सम्ऽविदानाः। नाकस्य। पृष्ठे। स्वर्ग इति स्वःऽगे। लोके। यजमानम्। च। सादयन्तु॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 10
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ- হে স্ত্রী ! (তে) তোমার (অধিপতিঃ) স্বামী যেমন যাহার (বসবঃ) অগ্নাদিক (দেবাঃ) প্রকাশমান (অদিপতয়ঃ) অধিষ্ঠিতা, সেইরূপ তুমি (প্রাচী) পূর্ব (দিক্) দিকের সমান (রাজ্ঞী) রাণী (অসি) হও, যেমন (হেতীনাম্) বজ্রাদি শস্ত্রাস্ত্রসমূহের (প্রতিধর্ত্তা) প্রত্যক্ষ ধারণ করিয়া, (ত্রিবৃৎ) বিদ্যুৎ ভূমিস্থ এবং সূর্য্যরূপ দ্বারা তিন প্রকার বর্ত্তমান (স্তোমঃ) স্তুতিযুক্ত গুণগুলির সহিত (অগ্নিঃ) মহাবিদ্যুৎ ধারণকারিণী সেইরূপ (ত্বা) তোমাকে তোমার পতি আমি ধারণ করি । তুমি (পৃথিব্যাম্) ভুমিতে (অব্যথায়ৈ) পীড়া না হওয়ার জন্য (উক্থম্) প্রশংসনীয় (আজ্যম্) ঘৃতাদি পদার্থ সমূহকে (শ্রয়তু) ধারণ কর, (প্রতিষ্ঠিত্যৈ) প্রতিষ্ঠার (রথন্তরম্) রথাদি দ্বারা উত্তীর্ণকারী (সাম) সিদ্ধান্ত কর্মকে (স্তভ্নাতু) ধারণ কর, যেমন (অন্তরিক্ষে) আকাশে (দিবঃ) বিদ্যুতের (মাত্রয়া) লেশ সম্বন্ধ এবং (বরিম্ণা) মহাপুরুষার্থ দ্বারা (দেবেষু) বিদ্বান্দিগের মধ্যে (প্রথমজাঃ) প্রথমজাত (ঋষয়ঃ) বেদার্থবিৎ বিদ্বান্ (ত্বা) তোমাকে (প্রথন্তু) শুভ গুণগুলি দ্বারা বিশাল বুদ্ধি করুক (চ) এবং যেমন (অয়ম্) এই (বিধর্ত্তা) বিবিধ রীতিপূর্বক ধারণকর্ত্তা (তে) তোমার পতি তোমার সহিত আচরণ করুক সেইরূপ তৎসহ তুমি আচরণ কর (এবং) এবং যেমন (সর্বে) সব (সংবিদানাঃ) উত্তম বিদ্বান্ গণ (নাকস্য) অবিদ্যমান দুঃখের (পৃষ্ঠে) মধ্যে (স্বর্গে) যে স্বর্গ অর্থাৎ অত্যন্ত সুখের প্রাপ্তি (লোকে) দর্শনীয় তাহাতে (ত্বা) তোমাকে (চ) এবং (য়জমানম্) তোমার পতিকে (সাদয়ন্তু) স্থাপন করে । সেইরূপ তোমরা উভয়ে স্ত্রী-পুরুষ আচরণ কর ॥ ১০ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । পূর্ব দিককে এইজন্য উত্তম বলা হয় যে, যাহাতে সূর্য্য প্রথম সেখানে উদয় প্রাপ্ত হয় । যে পূর্ব দিক্ হইতে বায়ু প্রবাহিত হয় সে কোন দেশে মেঘকে সঞ্চার করে, কোথাও নয় এবং এই অগ্নি সকল পদার্থকে ধারণ করিয়া তথা বায়ুর সংযোগ দ্বারা বৃদ্ধি পায় । যে পুরুষ এই বায়ু ও অগ্নিকে যথার্থ জানে তাহারা সংসারে প্রাণিদিগকে সুখ পৌঁছাইয়া থাকে ॥ ১০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - রাজ্ঞ্য॑সি॒ প্রাচী॒ দিগ্বস॑বস্তে দে॒বাऽঅধি॑পতয়ো॒ऽগ্নির্হে॑তী॒নাং প্র॑তিধ॒র্ত্তা ত্রি॒বৃত্ত্বা॒ স্তোমঃ॑ পৃথি॒ব্যাᳬंশ্র॑য়॒ত্বাজ্য॑মু॒ক্থমব্য॑থায়ৈ স্তভ্নাতু রথন্ত॒রꣳসাম॒ প্রতি॑ষ্ঠিত্যাऽঅ॒ন্তরি॑ক্ষ॒ऽঋষ॑য়স্ত্বা প্রথম॒জা দে॒বেষু॑ দি॒বো মাত্র॑য়া বরি॒ম্ণা প্র॑থন্তু বিধ॒র্ত্তা চা॒য়মধি॑পতিশ্চ॒ তে ত্বা॒ সর্বে॑ সংবিদা॒না নাক॑স্য পৃ॒ষ্ঠে স্ব॒র্গে লো॒কে য়জ॑মানং চ সাদয়ন্তু ॥ ১০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - রাজ্ঞ্যসীত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । বসবো দেবতাঃ । পূর্বস্য বিরাড্ ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ । প্রথমজা ইত্যুত্তরস্য ব্রাহ্মী বৃহতী ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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