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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 47
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अ॒ग्नि होता॑रं मन्ये॒ दास्व॑न्तं॒ वसु॑ꣳ सू॒नुꣳ सह॑सो जा॒तवे॑दसं॒ विप्रं॒ न जा॒तवे॑दसम्। यऽऊ॒र्ध्वया॑ स्वध्व॒रो दे॒वो दे॒वाच्या॑ कृ॒पा। घृ॒तस्य॒ विभ्रा॑ष्टि॒मनु॑ वष्टि शो॒चिषा॒ऽऽजुह्वा॑नस्य स॒र्पिषः॑॥४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम्। होता॑रम्। म॒न्ये॒। दास्व॑न्तम्। वसु॑म्। सू॒नुम्। सह॑सः। जा॒तवे॑दस॒मिति॑ जा॒तऽवे॑दसम्। विप्र॑म्। न। जा॒तऽवे॑दस॒मिति॑ जा॒तऽवे॑दसम्। यः। ऊ॒र्ध्वया॑। स्व॒ध्व॒र इति॑ सुऽअध्व॒रः। दे॒वः। दे॒वाच्या॑। कृ॒पा। घृ॒तस्य॑। विभ्रा॑ष्टि॒मिति॒ विऽभ्रा॑ष्टिम्। अनु॑। व॒ष्टि॒। शो॒चिषा॑। आ॒जुह्वा॑न॒स्येत्या॒ऽजुह्वा॑नस्य। स॒र्पिषः॑ ॥४७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निँ होतारम्मन्ये दास्वन्तँवसुँ सूनुँ सहसो जातवेदसँविप्रन्न जातवेदसम् । यऽऊर्ध्वया स्वध्वरो देवो देवाच्या कृपा । घृतस्य विभ्राष्टिमनु वष्टि शोचिषाजुह्वानस्य सर्पिषः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम्। होतारम्। मन्ये। दास्वन्तम्। वसुम्। सूनुम्। सहसः। जातवेदसमिति जातऽवेदसम्। विप्रम्। न। जातऽवेदसमिति जातऽवेदसम्। यः। ऊर्ध्वया। स्वध्वर इति सुऽअध्वरः। देवः। देवाच्या। कृपा। घृतस्य। विभ्राष्टिमिति विऽभ्राष्टिम्। अनु। वष्टि। शोचिषा। आजुह्वानस्येत्याऽजुह्वानस्य। सर्पिषः॥४७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 47
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! (য়ঃ) যে (ঊর্ধ্বয়া) ঊধর্বগতি সহ (স্বধবরঃ) শুভ কর্ম করিতে অহিংসনীয় (দেবাচ্যা) বিদ্বান্দিগের সৎকার হেতু (কৃপা) সমর্থ ক্রিয়া দ্বারা (দেবঃ) দিব্য গুণযুক্ত পুরুষ (শোচিষা) দীপ্তি সহ (আজুহ্বানস্য) উত্তম প্রকার হবন কৃত (সর্পিষঃ) ঘৃত এবং (ঘৃতস্য) জলের সকাশ দ্বারা (বিভ্রাষ্টিম্) বিবিধ প্রকারের জ্যোতিসকলকে (অনুবষ্টি) প্রকাশিত করে সেই (হোতারম্) সুখদাতা (জাতবেদসম্) উৎপন্ন সব পদার্থসকলে বিদ্যমান (সহসঃ) বলবান পুরুষের (সূনুম্) পুত্র সমান (বসুম্) ধনদাতা (দাস্বন্তম্) দানশীল (জাতবেদ সম্) বুদ্ধিমানদিগের মধ্যে প্রসিদ্ধ (অগ্নিম্) তেজস্বী অগ্নির (ন) সমান (বিপ্রম্) আপ্ত জ্ঞানীর আমি (মন্যে) সৎকার করি, সেইরূপ তোমরাও তাহাকে মান ॥ ৪৭ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ–এই সঙ্গে উপমা ও বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন উত্তম প্রকার সেবন কৃত বিদ্বান্ গণ বিদ্যা, ধর্ম এবং উত্তম শিক্ষা দ্বারা সকলকে আর্য্য করে সেইরূপ যুক্তি দ্বারা সেবন কৃত অগ্নি নিজ গুণ, কর্ম ও স্বভাব দ্বারা সকলকে সুখের উন্নতি করে ॥ ৪৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - অ॒গ্নিᳬं হোতা॑রং মন্যে॒ দাস্ব॑ন্তং॒ বসু॑ꣳ সূ॒নুꣳ সহ॑সো জা॒তবে॑দসং॒ বিপ্রং॒ ন জা॒তবে॑দসম্ । য়ऽঊ॒র্ধ্বয়া॑ স্বধ্ব॒রো দে॒বো দে॒বাচ্যা॑ কৃ॒পা । ঘৃ॒তস্য॒ বিভ্রা॑ষ্টি॒মনু॑ বষ্টি শো॒চিষা॒ऽऽজুহ্বা॑নস্য স॒র্পিষঃ॑ ॥ ৪৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - অগ্নিꣳ হোতারমিত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাড্ ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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