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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 14
    सूक्त - प्रत्यङ्गिरसः देवता - कृत्यादूषणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त

    अप॑ क्राम॒ नान॑दती॒ विन॑द्धा गर्द॒भीव॑। क॒र्तॄन्न॑क्षस्वे॒तो नु॒त्ता ब्रह्म॑णा वी॒र्यावता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । क्रा॒म॒ । नान॑दीती । विऽन॑ध्दा । ग॒र्द॒भीऽइ॑व । क॒र्तृन् । न॒क्ष॒स्व॒ । इ॒त: । नु॒त्ता । ब्रह्म॑णा । वी॒र्य᳡ऽवता ॥१.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप क्राम नानदती विनद्धा गर्दभीव। कर्तॄन्नक्षस्वेतो नुत्ता ब्रह्मणा वीर्यावता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप । क्राम । नानदीती । विऽनध्दा । गर्दभीऽइव । कर्तृन् । नक्षस्व । इत: । नुत्ता । ब्रह्मणा । वीर्यऽवता ॥१.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 14

    पदार्थ -

    १. हे कृत्ये-हिंसा की क्रिये! तू (वीर्यावता ब्रह्मणा) = वीर्यवान् ज्ञान के द्वारा (नुत्ता) = दूर प्रेरित हुई-हुई (इत:) = यहाँ से (कर्तृन्) = अपने उत्पन्न करनेवालों के पास ही (नक्षस्व) = चली जा-उन्हीं को प्राप्त हो। (इव) = जैसेकि (विनद्धा) = बन्धन से रहित हुई-हुई (गर्दभी) = गधी (नानदती) = रैकती हुई भाग खड़ी होती है, उसी प्रकार (अपक्राम) = तु यहाँ से दूर चली जा।

    भावार्थ -

    ज्ञान और शक्ति का सम्पादन करते हुए हम शत्रुकृत् कृत्याओं को अपने से दूर भगानेवाले हों।

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