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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 5
    सूक्त - प्रत्यङ्गिरसः देवता - कृत्यादूषणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त

    अ॒घम॑स्त्वघ॒कृते॑ श॒पथः॑ शपथीय॒ते। प्र॒त्यक्प्र॑ति॒प्रहि॑ण्मो॒ यथा॑ कृत्या॒कृतं॒ हन॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒घम् । अ॒स्तु॒ । अ॒घऽकृते॑ । श॒पथ॑: । श॒प॒थि॒ऽय॒ते । प्र॒त्यक् । प्र॒ति॒ऽप्रहि॑ण्म: । यथा॑ । कृ॒त्या॒ऽकृत॑म् । हनत् ॥१.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अघमस्त्वघकृते शपथः शपथीयते। प्रत्यक्प्रतिप्रहिण्मो यथा कृत्याकृतं हनत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अघम् । अस्तु । अघऽकृते । शपथ: । शपथिऽयते । प्रत्यक् । प्रतिऽप्रहिण्म: । यथा । कृत्याऽकृतम् । हनत् ॥१.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. अघम्-यह हिंसारूप पाप अधकृते अस्तु-इस पाप को करनेवाले के लिए ही हो। शपथ:-यह आक्रोश शपथीयते-शाप देनेवाले के लिए ही हो। हम इस अघ व शपथ को प्रत्यक् प्रतिप्रहिण्म: वापस भेजे देते हैं, यथा-जिससे यह कृत्याकृतं हनत्-हिंसा करनेवाले को ही नष्ट करे।

    भावार्थ -

    अघकृत् को ही उसका पाप प्राप्त होता है, शाप देनेवाले को ही शाप लगता है।

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