अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 25
सूक्त - प्रत्यङ्गिरसः
देवता - कृत्यादूषणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त
अ॒भ्यक्ताक्ता॒ स्व॑रंकृता॒ सर्वं॒ भर॑न्ती दुरि॒तं परे॑हि। जा॑नीहि कृत्ये क॒र्तारं॑ दुहि॒तेव॑ पि॒तरं॒ स्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भिऽअ॑क्ता । आऽअ॑क्ता । सुऽअ॑रंकृता । सर्व॑म् । भर॑न्ती । दु॒:ऽइ॒तम् । परा॑ । इ॒हि॒ । जा॒नी॒हि॒ । कृ॒त्ये॒ । क॒र्तार॑म् । दु॒हि॒ताऽइ॑व । पि॒तर॑म् । स्वम् ॥१.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
अभ्यक्ताक्ता स्वरंकृता सर्वं भरन्ती दुरितं परेहि। जानीहि कृत्ये कर्तारं दुहितेव पितरं स्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठअभिऽअक्ता । आऽअक्ता । सुऽअरंकृता । सर्वम् । भरन्ती । दु:ऽइतम् । परा । इहि । जानीहि । कृत्ये । कर्तारम् । दुहिताऽइव । पितरम् । स्वम् ॥१.२५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 25
विषय - अभ्यक्ता, अक्ता, स्वरंकृता
पदार्थ -
१. (अभ्यक्ता) = चन्दनादि लेप से सब प्रकार से सुन्दर, (अक्ता) = तैलादि से मर्दित, (सु अरंकृता) = उत्तम रीति से आभूषणों से सुसज्जित होकर भी वेश्या के समान (सर्वं दुरितं भरन्ती) = सब दुरित [दुराचरण] को अपने में धारण करती हुई तू हे कृत्ये! (परा इहि) = हमसे दूर जा। २. हे (कृत्ये) = छेदन-क्रिये! तू उसी प्रकार (कर्तारं जानीहि) = अपने उत्पादक को जान, (इव) = जैसेकि (दुहिता स्वं पितरम्) = लड़की अपने पिता को ही समझती है, पति से लौटाई हुई वह पिता के पास ही रहती है और पिता का ही व्यय कराती है। जैसे दुहिता पिता के पास लौट आती है, उसी प्रकार हे कृत्ये! तू कर्ता के पास ही लौट जा।
भावार्थ -
बड़ी सुन्दर आकृति की कृत्या का प्रयोग भी कर्ता के समीप ही लौट जाए। यह सुन्दराकृति वेश्या के समान विनाशक ही है।
इस भाष्य को एडिट करें