अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
सूक्त - प्रत्यङ्गिरसः
देवता - कृत्यादूषणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त
शू॒द्रकृ॑ता॒ राज॑कृता॒ स्त्रीकृ॑ता ब्र॒ह्मभिः॑ कृ॒ता। जा॒या पत्या॑ नु॒त्तेव॑ क॒र्तारं॒ बन्ध्वृ॑च्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठशूद्रऽकृ॑ता । राज॑ऽकृता । स्त्रीऽकृ॑ता । ब्र॒ह्मऽभि॑: । कृ॒ता । जा॒या । पत्या॑ । नु॒त्ताऽइ॑व । क॒र्तार॑म् । बन्धु॑ । ऋ॒च्छ॒तु॒ ॥१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
शूद्रकृता राजकृता स्त्रीकृता ब्रह्मभिः कृता। जाया पत्या नुत्तेव कर्तारं बन्ध्वृच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठशूद्रऽकृता । राजऽकृता । स्त्रीऽकृता । ब्रह्मऽभि: । कृता । जाया । पत्या । नुत्ताऽइव । कर्तारम् । बन्धु । ऋच्छतु ॥१.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
विषय - जाया पत्या नुत्ता इव
पदार्थ -
१. (शूद्रकृता) = श्रमिकों से की गई, (राजकृता) = राजाओं से की गई, (स्वीकता) = स्त्रियों से की गई तथा (ब्रह्मभिः कृता) = ब्राह्मणों से की गई कृत्या (कर्तारम्) = कृत्या के करनेवाले को इसप्रकार (ऋच्छत) = प्राप्त हो, (इव) = जैसे (पत्या नुत्ता) = पति से परे धकेली हुई (जाया) = पत्नी (बन्धु) = अपने मातृ बन्धुओं को पुनः प्राप्त होती है।
भावार्थ -
शूद्रों, राजाओं, स्त्रियों व ब्राह्मणों से की गई कृत्या कर्ता को पुन: इसप्रकार प्राप्त हो, जैसेकि पति से परे धकेली हुई पत्नी अपने मातबन्धुओं को पुन: प्राप्त होती है।
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