अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 21
सूक्त - प्रत्यङ्गिरसः
देवता - कृत्यादूषणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त
ग्री॒वास्ते॑ कृत्ये॒ पादौ॒ चापि॑ कर्त्स्यामि॒ निर्द्र॑व। इ॑न्द्रा॒ग्नी अ॒स्मान्र॑क्षतां॒ यौ प्र॒जानां॑ प्र॒जाव॑ती ॥
स्वर सहित पद पाठग्री॒वा: । ते॒ । कृ॒त्ये॒ । पादौ॑ । च॒ । अपि॑ । क॒र्त्स्या॒मि॒ । नि: । द्र॒व॒ । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । अ॒स्मान् । र॒क्ष॒ता॒म् । यौ । प्र॒ऽजाना॑म् । प्र॒जाव॑ती॒ इति॑ प्र॒जाऽव॑ती ॥१.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
ग्रीवास्ते कृत्ये पादौ चापि कर्त्स्यामि निर्द्रव। इन्द्राग्नी अस्मान्रक्षतां यौ प्रजानां प्रजावती ॥
स्वर रहित पद पाठग्रीवा: । ते । कृत्ये । पादौ । च । अपि । कर्त्स्यामि । नि: । द्रव । इन्द्राग्नी इति । अस्मान् । रक्षताम् । यौ । प्रऽजानाम् । प्रजावती इति प्रजाऽवती ॥१.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 21
विषय - इन्द्राग्नी
पदार्थ -
१.हे (कृत्ये) = शत्रुकृत् छेदन-भेदन क्रिया के लिए मनुष्यरूप में बनाई गई वस्तु! (ते ग्रीवा:) = तेरी गर्दन की नाड़ियों को (च पादौ अपि) = और पाँवों को भी (कर्त्स्यामि) = मैं छिन्न कर डालूँगा, अतः (निर्द्रव) = तू यहाँ से दूर भाग जा। २. (इन्द्राग्नी) = राष्ट्र में हमारे सेनापति व राजा अथवा व्यक्ति में बल व प्रकाश के तत्व (अस्मान् रक्षताम्) = हमारा रक्षण करें। (यौ) = बल व प्रकाश के तत्त्व अथवा सेनापति व राजा (प्रजानाम् प्रजावती) = प्रजाओं में प्रशस्त प्रजाओवाले हैं-अथवा माता के समान प्रजाओं का रक्षण करनेवाले हैं।
भावार्थ -
हम शत्रुकृत् घातक प्रयोगों को दूर करनेवाले हों। बल व प्रकाश के तत्त्व हमारा रक्षण करें। ये दोनों तत्व प्रजाओं में प्रशस्त प्रजावाले हैं, अथवा सेनापति व राजा हमारा रक्षण करें।
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