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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
    सूक्त - प्रत्यङ्गिरसः देवता - कृत्यादूषणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त

    प्र॑ती॒चीन॑ आङ्गिर॒सोऽध्य॑क्षो नः पु॒रोहि॑तः। प्र॒तीचीः॑ कृ॒त्या आ॒कृत्या॒मून्कृ॑त्या॒कृतो॑ जहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒ती॒चीन॑: । अ॒ङ्गि॒र॒स: । अधि॑ऽअक्ष: । न॒: । पु॒र:ऽहि॑त: । प्र॒तीची॑: । कृ॒त्या: । आ॒ऽकृत्य॑ । अ॒मून् । कृ॒त्या॒ऽकृत॑: । ज॒हि॒ ॥१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रतीचीन आङ्गिरसोऽध्यक्षो नः पुरोहितः। प्रतीचीः कृत्या आकृत्यामून्कृत्याकृतो जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रतीचीन: । अङ्गिरस: । अधिऽअक्ष: । न: । पुर:ऽहित: । प्रतीची: । कृत्या: । आऽकृत्य । अमून् । कृत्याऽकृत: । जहि ॥१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. (प्रतीचीन:) = [प्रति अञ्च] प्रत्याहार की वृत्तिवाला-इन्द्रियों को विषयों से व्यावृत्त करनेवाला, अतएव (आङ्गिरस:) = अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाला, (अध्यक्ष:) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता यह व्यक्ति (न:) = हमारा (पुरोहित:) = पुरोहित है। यह (कृत्या:) = शत्रुकृत् सब हिंसाप्रयोगों को (प्रतीची:) = फिर लौट जानेवाला (आकृत्य) = करके (अमून्) = उन (कत्याकृतः) = हिंसा करनेवालों को ही (जहि) = विनष्ट करे।

    भावार्थ -

    हम अन्तर्मुखी वृत्तिवाले अतएव अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाले, इन्द्रियों के अधिष्ठाता बनकर औरों के लिए  आदर्शरूप हों और उनसे की गई कृत्याओं को वापस भेजकर उन्हीं का विनाश करें।

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