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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 11
    सूक्त - प्रत्यङ्गिरसः देवता - कृत्यादूषणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त

    यत्ते॑ पि॒तृभ्यो॒ दद॑तो य॒ज्ञे वा॒ नाम॑ जगृ॒हुः। सं॑दे॒श्या॒त्सर्व॑स्मात्पा॒पादि॒मा मु॑ञ्चन्तु॒ त्वौष॑धीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ते॒ । पि॒तृऽभ्य॑: ।दद॑त: । य॒ज्ञे । वा॒ । नाम॑ । ज॒गृ॒हु: । स॒म्ऽदे॒श्या᳡त् । सर्व॑स्मात् । पा॒पात् । इ॒मा: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । त्वा॒ । ओष॑धी: ॥१.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते पितृभ्यो ददतो यज्ञे वा नाम जगृहुः। संदेश्यात्सर्वस्मात्पापादिमा मुञ्चन्तु त्वौषधीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । ते । पितृऽभ्य: ।ददत: । यज्ञे । वा । नाम । जगृहु: । सम्ऽदेश्यात् । सर्वस्मात् । पापात् । इमा: । मुञ्चन्तु । त्वा । ओषधी: ॥१.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 11

    पदार्थ -

    १. (यत्) = जब (पितृभ्यः ददत:) = पितरों के लिए देते हुए, अर्थात् पितृयज्ञ को सम्यक् सम्पन्न करते हुए (वा) = अथवा (यज्ञे) = [ददतः] अग्निहोत्र आदि यज्ञों में आहुतियाँ देते हुए (ते) = वे उत्तम आचरण करनेवाले लोग नाम (जगृहु:) = प्रभु-नाम का ग्रहण करते हैं, अर्थात् प्रभु का स्मरण करते हैं और प्रभु-स्मरण के कारण ही उन यज्ञों का अहंकार नहीं करते तब (इमाः ओषधी:) = ये दोर्षों का दहन करनेवाले आचार्य विद्वान् लोग (त्वा) = तुझे (सर्वस्मात्) = सब (सन्देश्यात्) = [सन्दिश to give, grant] दान-सम्बन्धी (पापात्) = पाप से (मञ्चन्तु) = मुक्त करें, अर्थात् वे ठीक से प्रेरणा देते हुए यज्ञों में अज्ञानवश हो जानेवाले अपराधों से हमें बचाएँ।

    भावार्थ -

    ज्ञानी लोग पितृयज्ञ व देवयज्ञादि उत्तम कर्मों को करते हुए प्रभुनाम-स्मरण से अहंकारवाले नहीं होते। वे दोषों को दग्ध करनेवाले ज्ञानी पुरुष हमें भी इन दानों में हो जानेवाले अपराधों से बचाएँ।

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