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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 20
    सूक्त - प्रत्यङ्गिरसः देवता - कृत्यादूषणम् छन्दः - विराट्प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त

    स्वा॑य॒सा अ॒सयः॑ सन्ति नो गृ॒हे वि॒द्मा ते॑ कृत्ये यति॒धा परूं॑षि। उत्ति॑ष्ठै॒व परे॑ही॒तोऽज्ञा॑ते॒ किमि॒हेच्छ॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽआ॒य॒सा: । अ॒सय॑: । स॒न्ति॒ । न॒: । गृ॒हे । वि॒द्म । ते॒ । कृ॒त्ये॒ । य॒ति॒ऽधा । परूं॑षि । उत् । ति॒ष्ठ॒ । ए॒व । परा॑ । इ॒हि॒ । इ॒त: । अज्ञा॑ते । किम् । इ॒ह । इ॒च्छ॒सि॒ ॥१.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वायसा असयः सन्ति नो गृहे विद्मा ते कृत्ये यतिधा परूंषि। उत्तिष्ठैव परेहीतोऽज्ञाते किमिहेच्छसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽआयसा: । असय: । सन्ति । न: । गृहे । विद्म । ते । कृत्ये । यतिऽधा । परूंषि । उत् । तिष्ठ । एव । परा । इहि । इत: । अज्ञाते । किम् । इह । इच्छसि ॥१.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 20

    पदार्थ -

    १. (नः गृहे) = हमारे घर में (स्वायसा:) = उत्तम लोहे की बनी हुई (असयः सन्ति) = तलवारें हैं और हे (कृत्ये) = शत्रुकृत् हिंसा-प्रयोग! (यतिधा ते परूंषि) = जितने प्रकार के तेरे पर्व हैं उन्हें भी (विद्य) = हम जानते हैं। हम अपने यहाँ शत्रुविनाश के लिए अस्त्र-शस्त्रों को तैयार रक्खें तथा शत्रुकृत् हिंसा-प्रयोगों के प्रति सावधान रहें। २. शत्रुकृत् हिंसा-प्रयोग को सम्बोधित करते हुए हम कह सकें कि (उत्तिष्ठ एव) = तू यहाँ से उठ ही खड़ा हो, (इतः परा इहि) = यहाँ से सुदूर स्थान में चला जा। (अज्ञाते) = हे अज्ञातरूप में रहनेवाली हिंसाक्रिये! (इह किम् इच्छसि) = यहाँ तू क्या चाहती है, अर्थात् यहाँ तेरा क्या काम है? तुझे हम समझ गये हैं-अब तू यहाँ से दूर ही रह।

    भावार्थ -

    हम अपने शस्त्रों को उत्तम स्थिति में रक्खें। शत्रुकृत् हिंसा-प्रयोगों को ठीक से जानकर उन्हें अपने से दूर करें।

     

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