अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 26
सूक्त - प्रत्यङ्गिरसः
देवता - कृत्यादूषणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त
परे॑हि कृत्ये॒ मा ति॑ष्ठो वि॒द्धस्ये॑व प॒दं न॑य। मृ॒गः स मृ॑ग॒युस्त्वं न त्वा॒ निक॑र्तुमर्हति ॥
स्वर सहित पद पाठपरा॑ । इ॒हि॒ । कृ॒त्ये॒ । मा । ति॒ष्ठ॒: । वि॒ध्दस्य॑ऽइव । प॒दम् । न॒य॒ । मृ॒ग: । स: । मृ॒ग॒ऽयु: । त्वम् । न । त्वा॒ । निऽक॑र्तृम् । अ॒र्ह॒ति॒ ॥१.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
परेहि कृत्ये मा तिष्ठो विद्धस्येव पदं नय। मृगः स मृगयुस्त्वं न त्वा निकर्तुमर्हति ॥
स्वर रहित पद पाठपरा । इहि । कृत्ये । मा । तिष्ठ: । विध्दस्यऽइव । पदम् । नय । मृग: । स: । मृगऽयु: । त्वम् । न । त्वा । निऽकर्तृम् । अर्हति ॥१.२६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 26
विषय - मृगः सः, मृगयुः त्वं
पदार्थ -
१. हे (कृत्ये) = हिंसाक्रिये! तू (परा इहि) = यहाँ से दूर जा, (मा तिष्ठः) = हमारे समीप स्थित मत हो। (विद्धस्य एव) = बाण से घायल शिकार के पैरों के निशान देखकर जिस प्रकार शिकार खोज लिया जाता है, उसी प्रकार तू (पदं नय) = शत्रु के पैर खोज-खोजकर उस तक पहुँच जा। २. हे कृत्ये! (सः मृग:) = वह शत्रु मृग है, (त्वं मृगयुः) = तू उस मृग का शिकार करनेवाली है। वह (त्वा) = तुझे (निकर्तुं न अर्हति) = काटने योग्य नहीं है। तू उसी के पास लौटकर उसका छेदन करनेवाली हो।
भावार्थ -
हे कृत्ये! तू अपने करनेवाले के समीप ही पहुँच। तू उसी को नष्ट कर। तुझ मृगयु का वह मृग है। तुझे उसको मारना है, वह तुझे नहीं मार सकता।
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