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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 30
    सूक्त - प्रत्यङ्गिरसः देवता - कृत्यादूषणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त

    यदि॒ स्थ तम॒सावृ॑ता॒ जाले॑न॒भिहि॑ता इव। सर्वाः॑ सं॒लुप्ये॒तः कृ॒त्याः पुनः॑ क॒र्त्रे प्र हि॑ण्मसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑ । स्थ । तम॑सा । आऽवृ॑ता । जाले॑न । अ॒भिहि॑ता:ऽइव सर्वा॑: । स॒म्ऽलुप्य॑ । इ॒त: । कृ॒त्या: । पुन॑: । क॒र्त्रे । प्र । हि॒ण्म॒सि॒ ॥१.३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदि स्थ तमसावृता जालेनभिहिता इव। सर्वाः संलुप्येतः कृत्याः पुनः कर्त्रे प्र हिण्मसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि । स्थ । तमसा । आऽवृता । जालेन । अभिहिता:ऽइव सर्वा: । सम्ऽलुप्य । इत: । कृत्या: । पुन: । कर्त्रे । प्र । हिण्मसि ॥१.३०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 30

    पदार्थ -

    १. हे लोगो! (यदि) = यदि तुम (तमसा आवृताः स्थ) = अन्धकार से आच्छादित-से हो, अथवा (जालेन) = जाल से (अभिहिताः इव) = बद्ध-से हो, अर्थात् शत्रुकृत् कृत्याओं के कारण यदि चारों ओर अन्धकार-सा छा गया है और ऐसा लगता है कि हमारे लोग जाल से बद्ध-से हो गये हैं, तो (इत:) = यहाँ से (सर्वाः कृत्याः) = सब हिंसा-प्रयोगों को (संलुप्य) = लुप्स करके-छिन्न करके (पुन:) = फिर (कर्त्रे) = इनके करनेवालों के लिए ही (प्रहिण्मसि) = हम भेजते हैं।

     

    भावार्थ -

    रक्षकवर्ग का यह कर्तव्य है कि शत्रुकृत् अन्धकारों व जाल-बन्धनों से प्रजा का रक्षण करे।

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