अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 11
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - जगती
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
यदेज॑ति॒ पत॑ति॒ यच्च॒ तिष्ठ॑ति प्रा॒णदप्रा॑णन्निमि॒षच्च॒ यद्भुव॑त्। तद्दा॑धार पृथि॒वीं वि॒श्वरू॑पं॒ तत्सं॒भूय॑ भव॒त्येक॑मे॒व ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । एज॑ति । पत॑ति । यत् । च॒ । तिष्ठ॑ति । प्रा॒णत् । अप्रा॑णत् । नि॒ऽमि॒षत् । च॒ । यत् । भुव॑त् । तत् । दा॒धा॒र॒ । पृ॒थि॒वीम् । वि॒श्वऽरू॑पम् । तत् । स॒म्ऽभूय॑ । भ॒व॒ति॒ । एक॑म् । ए॒व ॥८.११॥
स्वर रहित मन्त्र
यदेजति पतति यच्च तिष्ठति प्राणदप्राणन्निमिषच्च यद्भुवत्। तद्दाधार पृथिवीं विश्वरूपं तत्संभूय भवत्येकमेव ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । एजति । पतति । यत् । च । तिष्ठति । प्राणत् । अप्राणत् । निऽमिषत् । च । यत् । भुवत् । तत् । दाधार । पृथिवीम् । विश्वऽरूपम् । तत् । सम्ऽभूय । भवति । एकम् । एव ॥८.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 11
विषय - सर्वं खल्विदम्
पदार्थ -
१. (यत् एजति) = जो कम्पित होता है, (पतति) = गतिवाला होता है, (यत् च तिष्ठति) = और जो स्थित होता है, (प्राणत् अप्राणत्) = श्वास लेता हुआ, या न श्वास लेता हुआ है, (यत् च) = और जो (निमिषत् भुवत्) = सदा आँखे मूंदै हुए है, (तत्) = उस सबको, (पृथिवीम्) = इस सम्पूर्ण चराचर पदार्थों की आधारभूत पृथिवी को (दाधार) = वे प्रभुधारण कर रहे हैं-'ओम्' शब्द वाच्य प्रभु ही इस सबके आधार हैं। २. (विश्वरूपं तत्) = वह नानारूपोंवाला ब्रह्माण्ड (संभूय) = उस प्रभु के साथ होकर-उसी के एकदेश में स्थिर होकर-(एकम् एव भवति) = वह एक प्रभु ही हो जाता है। प्रभु-मध्य पतित [स्थित] होने से यह प्रभु के ग्रहण से ही गृहीत होता है-इसकी अलग सत्ता नहीं दिखती। 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' का यही तो अर्थ है।
भावार्थ -
सब प्राणिमात्र व सब पिण्ड प्रभु से धारण किये जा रहे हैं। प्रभु से भिन्न देश में स्थित न होने से ये प्रभु के ग्रहण से ही गृहीत होते हैं-ये सब प्रभु में ही समाये हुए हैं।
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