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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 7
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - पराबृहती त्रिष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त

    एक॑चक्रं वर्तत॒ एक॑नेमि स॒हस्रा॑क्षरं॒ प्र पु॒रो नि प॑श्चा। अ॒र्धेन॒ विश्वं॒ भुव॑नं ज॒जान॒ यद॑स्या॒र्धं क्व तद्ब॑भूव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑ऽचक्रम् । व॒र्त॒ते॒ । एक॑ऽनेमि । स॒हस्र॑ऽअक्षरम् । प्र । पु॒र: । नि । प॒श्चा । अ॒र्धेन॑ । विश्व॑म् । भुव॑नम् । ज॒जान॑ । यत् । अ॒स्य॒ । अ॒र्धम् । क्व᳡ । तत् । ब॒भू॒व॒ ॥८.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकचक्रं वर्तत एकनेमि सहस्राक्षरं प्र पुरो नि पश्चा। अर्धेन विश्वं भुवनं जजान यदस्यार्धं क्व तद्बभूव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकऽचक्रम् । वर्तते । एकऽनेमि । सहस्रऽअक्षरम् । प्र । पुर: । नि । पश्चा । अर्धेन । विश्वम् । भुवनम् । जजान । यत् । अस्य । अर्धम् । क्व । तत् । बभूव ॥८.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    १. वे प्रभु (एकचक्रम्) = अद्वितीय कर्ता (वर्तते) = हैं। (एकनेमि) = [नेमिः नयनं चालनम्] अद्वितीय संचालनवाले हैं। (सहस्त्राक्षरम्) = हज़ारों [अक्षर-अक्षय] अविनाशी शक्तियोंवाले हैं। (पुरः) = आगे व (पश्चा) = पीछे (प्र) = प्रकर्षण (नि) = निश्चयपूर्वक वर्तमान है-सर्वत्र व्याप्त है। ये प्रभु (अर्धेन) = एक अंश से (विश्वम्) = सम्पूर्ण (भुवनम्) = भुवन को (जजान) = प्रादुर्भूत कर रहे हैं [पादोऽस्य विश्वा भूतानि] (यत्) = जो (अस्य) = इस अविनाशी प्रभु का अर्धम् समृद्ध [ऋधु वृद्धौ] स्वरूप है (तत् क्व बभूव) = वह कहाँ है? [त्रिपादस्यामृतं दिवि] 'प्रभु का वह समृद्ध स्वरूप किसी अन्य आधार में स्थित हो ऐसी बात नहीं है।'

    भावार्थ -

    वे प्रभु अद्वितीय कर्ता, अद्वितीय संचालक, अनन्तशक्तियोंवाले, आगे-पीछे सर्वत्र हैं। प्रभु के एकदेश में यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रकट हो रहा है। प्रभु का अपना समृद्धस्वरूप, अन्य आधारवाला न होता हुआ प्रकाशमय है।

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