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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 14
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त

    ऊ॒र्ध्वं भर॑न्तमुद॒कं कु॒म्भेने॑वोदहा॒र्यम्। पश्य॑न्ति॒ सर्वे॒ चक्षु॑षा॒ न सर्वे॒ मन॑सा विदुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्वम् । भर॑न्तम् । उ॒द॒कम् । कु॒म्भेन॑ऽइव । उ॒द॒ऽहा॒र्य᳡म् । पश्य॑न्ति । सर्वे॑ । चक्षु॑षा । न । सर्वे॑ । मन॑सा । वि॒दु॒: ॥८.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ध्वं भरन्तमुदकं कुम्भेनेवोदहार्यम्। पश्यन्ति सर्वे चक्षुषा न सर्वे मनसा विदुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्वम् । भरन्तम् । उदकम् । कुम्भेनऽइव । उदऽहार्यम् । पश्यन्ति । सर्वे । चक्षुषा । न । सर्वे । मनसा । विदु: ॥८.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 14

    पदार्थ -

    १. (इव) = जैसे (कुम्भेन) = घड़े के द्वारा (उदकं ऊर्ध्व भरन्तम्) = पानी को ऊपर भरते [खेंचते] हुए (उदहार्यम्) = कहार को (सर्वे) = सब चक्षुषा (पश्यन्ति) = आँख से देखते हैं, इसी प्रकार समुद्ररूप कुएँ से, मेघरूप घड़ों के द्वारा, जल को ऊपर अन्तरिक्ष में पहुँचाते हुए प्रभु को सब आँख से देखते हैं। २. प्रभु अन्तरिक्ष में पानी को ऊपर ले जा रहे हैं-कितनी अद्धत उस उदहार्य की महिमा है? परन्तु सर्वे-सब मनसा न विदु:-मन से उस प्रभु को पूरा जान नहीं पाते। वे प्रभु 'अचिन्त्य' हैं 'अव्यक्तोऽयमचिन्त्योयमविकार्योऽयमुच्यते । सर्वत्र प्रभु की कृति दृष्टिगोचर होती है, परन्तु वे प्रभु हमारे ज्ञान का विषय नहीं बनते। .

    भावार्थ -

    सर्वत्र प्रभु की महिमा दृष्टिगोचर होती है, परन्तु वे प्रभु दीखते नहीं।

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