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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 26
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - द्व्यनुष्टुब्गर्भानुष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त

    इ॒यं क॑ल्या॒ण्यजरा॒ मर्त्य॑स्या॒मृता॑ गृ॒हे। यस्मै॑ कृ॒ता शये॒ स यश्च॒कार॑ ज॒जार॒ सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒यम् । क॒ल्या॒णी । अ॒जरा॑ । मर्त्य॑स्य । अ॒मृता॑ । गृ॒हे । यस्मै॑ । कृ॒ता । शये॑ । स: । य: । च॒कार॑ । ज॒जार॑ । स: ॥८.२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इयं कल्याण्यजरा मर्त्यस्यामृता गृहे। यस्मै कृता शये स यश्चकार जजार सः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इयम् । कल्याणी । अजरा । मर्त्यस्य । अमृता । गृहे । यस्मै । कृता । शये । स: । य: । चकार । जजार । स: ॥८.२६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 26

    पदार्थ -

    १. (इयम्) = यह, गतमन्त्र में वर्णित, 'परिष्वजीयसी' देवता कल्याणी हमारा कल्याण करनेवाली है। (अजरा) = कभी जीर्ण नहीं होती, (मर्त्यस्य) = मरणधर्मा जीव के (गृहे) = इस शरीरगृह में (अ-मृता) = न मरनेवाली है। शरीर में आत्मा के साथ परमात्मा का भी निवास है। शरीर में ममत्व रखनेवाला आत्मा तो 'जन्म-मरण' के चक्र में फंसता है, परन्तु इसमें रहता हुआ भी परमात्मा जन्म-मरण के चक्र से ऊपर है। २. (यस्मै कृता) = जिस जीव के लिए, कर्मफल भोगने के लिए आधार रूप से, यह शरीर-नगरी बनायी जाती है, (सः शये) = वह इसमें ममत्वपूर्वक निवास करता है। (यः चकार) = जो परमात्मा इस नगरी को बनाता है, (सः जजार) = वह स्तुति के योग्य होता है [ज स्तुतौ]। इस शरीर की रचना में-अङ्ग-प्रत्यङ्ग की रचना के कौशल में उस प्रभु की महिमा काअनुभव करता हुआ स्तोता उस प्रभु का स्तवन करता है।

    भावार्थ -

    शरीर में आत्मा व परमात्मा दोनों का निवास है। आत्मा इसमें रहता हुआ कर्मफल भोगता है। इसका निर्माता प्रभु स्तुति का विषय बनता है।

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