अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 28
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
उ॒तैषां॑ पि॒तोत वा॑ पु॒त्र ए॑षामु॒तैषां॑ ज्ये॒ष्ठ उ॒त वा॑ कनि॒ष्ठः। एको॑ ह दे॒वो मन॑सि॒ प्रवि॑ष्टः प्रथ॒मो जा॒तः स उ॒ गर्भे॑ अ॒न्तः ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । ए॒षा॒म् । पि॒ता । उ॒त । वा॒ । पु॒त्र: । ए॒षा॒म् । उ॒त । ए॒षा॒म् । ज्ये॒ष्ठ: । उ॒त । वा॒ । क॒नि॒ष्ठ: । एक॑: । ह॒ । दे॒व: । मन॑सि । प्रऽवि॑ष्ट: । प्र॒थ॒म: । जा॒त: । स: । ऊं॒ इति॑ । गर्भे॑ । अ॒न्त: ॥८.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
उतैषां पितोत वा पुत्र एषामुतैषां ज्येष्ठ उत वा कनिष्ठः। एको ह देवो मनसि प्रविष्टः प्रथमो जातः स उ गर्भे अन्तः ॥
स्वर रहित पद पाठउत । एषाम् । पिता । उत । वा । पुत्र: । एषाम् । उत । एषाम् । ज्येष्ठ: । उत । वा । कनिष्ठ: । एक: । ह । देव: । मनसि । प्रऽविष्ट: । प्रथम: । जात: । स: । ऊं इति । गर्भे । अन्त: ॥८.२८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 28
विषय - पिता उत पुत्रः, ज्येष्ठः उत वा कनिष्ठः
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार शरीर धारण करनेवाला यह जीवात्मा (उत एषां पिता) = इन सन्तानों का कभी तो पिता बनता है, (उत वा) = और निश्चय से (एषाम्) = इन अपने माता-पिताओं का (पुत्रः) = पुत्र होता है। (उत एषां ज्येष्ठः) = कभी तो भाइयों में बड़ा होता है, (उत वा) = अथवा कभी (कनिष्ठः) = छोटा होता है। २. (ह) = निश्चय से (एकः देवः) = वह अद्वितीय प्रकाशमय प्रभु (मनासि प्रविष्ट:) = हमारे हृदयों में स्थित है। (प्रथमः जात:) = वह सृष्टि बनने से पहले ही प्रादुर्भूत हुआ हुआ है (ऊ) = और वर्तमान में (स:) = वे प्रभु ही (गर्भे अन्त:) = सब लोक-लोकान्तरों व प्राणियों में प्रविष्ट होकर रह रहे है-अन्दर स्थित हुए-हुए सबका नियमन कर रहे हैं।
भावार्थ -
जीव शरीर में प्रविष्ट होकर कभी पिता है तो कभी पुत्र, कभी ज्येष्ठ है तो कभी कनिष्ठ, परन्तु वे अद्वितीय प्रभु पहले से ही प्रादुर्भूत हैं और वर्तमान में वे प्रभु ही सबके अन्दर स्थित होते हुए सब लोक-लोकान्तरों का नियमन कर रहे हैं।
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