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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 39
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - बृहतीगर्भा त्रिष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त

    यद॑न्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वी अ॒ग्निरैत्प्र॒दह॑न्विश्वदा॒व्यः। यत्राति॑ष्ठ॒न्नेक॑पत्नीः प॒रस्ता॒त्क्वेवासीन्मात॒रिश्वा॑ त॒दानी॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒न्त॒रा । द्या॑वाथि॒वी इति॑ । अ॒ग्नि: । ऐत् । प्र॒ऽदह॑न् । वि॒श्व॒ऽदा॒व्य᳡:। यत्र॑ । अति॑ष्ठन् । एक॑ऽपत्नी: । प॒रस्ता॑त् । क्व᳡ऽइव । आ॒सी॒त् । मा॒त॒रिश्वा॑ । त॒दानी॑म् ॥८.३९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदन्तरा द्यावापृथिवी अग्निरैत्प्रदहन्विश्वदाव्यः। यत्रातिष्ठन्नेकपत्नीः परस्तात्क्वेवासीन्मातरिश्वा तदानीम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अन्तरा । द्यावाथिवी इति । अग्नि: । ऐत् । प्रऽदहन् । विश्वऽदाव्य:। यत्र । अतिष्ठन् । एकऽपत्नी: । परस्तात् । क्वऽइव । आसीत् । मातरिश्वा । तदानीम् ॥८.३९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 39

    पदार्थ -

    १. (यत्) = जब (द्यावापृथिवी अन्तरा) = धुलोक व पृथिवीलोक के बीच में (प्रदहन) = प्रकर्षण सबको भस्म करता हुआ (विश्वदाव्यः) = [दु उपतापे] सम्पूर्ण संसार को उपतप्त करनेवाला (अग्नि: ऐत) = अग्नि गतिवाला होता है। (यत्र) = जहाँ (परस्तात्) = दूर तक ये दिशाएँ (एकपत्नी: अतिष्ठन्) = एक अग्निरूप पतिवाली होकर ही स्थित थीं, अर्थात् जब चारों और अग्नि-ही-अग्नि का राज्य था, (तदानीम्) = उस समय (मातरिश्वा) = वायु व सूत्रात्मा (क्व इव आसीत्) = कहाँ ही था? निश्चय से इसकी स्थिति कहाँ थी? चारों ओर अग्नि-ही-अग्नि थी, क्या उस समय इस अग्नि में ही इस मातरिश्वा की स्थिति थी? २. वस्तुत: अग्नि का भी अधिष्ठाता वह सूत्रात्मा हो तो है। अग्नि में हमारे पार्थिव शरीर न रह पाएँगे, परन्तु आत्मतत्त्व उसमें थोड़े ही जल जाता है?

    भावार्थ -

    प्रलयकाल में चारों ओर अग्नि-ही-अग्नि होकर सब भस्म हो जाता है। उस समय इसका अधिष्ठाता वह सूत्रात्मा ही है, जोकि अवशिष्ट रहता है।

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