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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 41
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त

    उत्त॑रेणेव गाय॒त्रीम॒मृतेऽधि॒ वि च॑क्रमे। साम्ना॒ ये साम॑ संवि॒दुर॒जस्तद्द॑दृशे॒ क्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्त॑रेणऽइव । गा॒य॒त्रीम् । अ॒मृते॑ । अधि॑ । वि । च॒क्र॒मे॒ । साम्ना॑ । ये । साम॑ । स॒म्ऽवि॒दु: । अ॒ज: । तत् । द॒दृ॒शे॒ । क्व᳡ ॥८.४१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तरेणेव गायत्रीममृतेऽधि वि चक्रमे। साम्ना ये साम संविदुरजस्तद्ददृशे क्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्तरेणऽइव । गायत्रीम् । अमृते । अधि । वि । चक्रमे । साम्ना । ये । साम । सम्ऽविदु: । अज: । तत् । ददृशे । क्व ॥८.४१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 41

    पदार्थ -

    १. जीवन का 'प्रात:सवन' [प्रथम चौबीस वर्ष] गायत्र कहलाता है ('गायत्र वै प्रात:सवनम्') = ऐत० ६।२। इस सवन में मुख्य कार्य यही है कि [गयाः प्राणाः तान् तत्रे] प्राणशक्ति का रक्षण किया जाए। यह रक्षण ही ब्रह्मचर्य कहलाता है। इस (गायत्री उत्तरेण इव) = प्राणशक्ति के रक्षणवाले प्रात:सवन के बाद ही (अमृते) = [अमृतम् इव हि स्वर्गों लोक: तै०१.३.७.५] स्वर्गलोक में (अधिविचक्रमे) = अधिष्ठातृरूपेण विचरणवाला होता है। ब्रह्मचर्य के बाद गृहस्थ ही स्वर्गलोक है। ब्रह्मचर्याश्रम में प्राणशक्ति के रक्षण का यह परिणाम होता है कि गृहस्थ स्वर्ग-सा बनता है। नीरोग गृहस्थ ही स्वर्ग है। २. गृहस्थ ही माध्यन्दिन सवन है। इसकी समाप्ति पर वानप्रस्थ व संन्यास ही सायन्तन सवन हैं। यहाँ (साम्ना) = उस पुरुष की उपासना के द्वारा [तमेतम्पुरुष सामेति छन्दोगा उपासते, एतस्मिन् हीदर सर्व समानम्-श०१०।५।२।२०] (ये) = जो (साम) = क्षत्र [बल] व साम्राज्य को [क्षत्रं वै साम-श०१२।८।३।२३ साम्राज्यं वै साम] (संविदुः) = सम्यक् जानते व प्राप्त करते हैं, अर्थात् जो प्रभु-उपासन के द्वारा शक्ति-सम्पन्न बनते हैं और इन्द्रियों के पूर्ण शासक [सम्राट] बनते हैं, (तत्) = तब यह (अजः) = जन्म न लेनेवाला जीव (क्व ददशे) = कहाँ दीखता है? अर्थात् यह इस देह के छूट जाने पर मुक्त हो जाता है और प्रभु के साथ विचरता है। इस शरीर में न आने से वह आँखों का विषय नहीं बनता।

    भावार्थ -

    हम जीवन के प्रात:सवन में प्राणशक्ति का [वीर्य का] पूर्ण रक्षण करते हुए 'गायत्री' के उपासक बनें तभी गृहस्थ में नीरोग रहते हुए हम इसे 'अमृत' बना पाएँगे और अन्ततः प्रभु के साथ मेल से हम शक्ति व इन्द्रियों के साम्राज्य [शासकत्व] को प्राप्त करके प्रभु के साथ विचरनेवाले बनेंगे-मुक्त हो जाएंगे। उस समय शरीर में न आने से हम दीखेंगे नहीं।

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