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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 18
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त

    स॑हस्रा॒ह्ण्यं विय॑तावस्य प॒क्षौ हरे॑र्हं॒सस्य॒ पत॑तः स्व॒र्गम्। स दे॒वान्त्सर्वा॒नुर॑स्युप॒दद्य॑ सं॒पश्य॑न्याति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒ह॒स्र॒ऽअ॒ह्न्यम् । विऽय॑तौ । अ॒स्य॒ । प॒क्षौ । हरे॑: । हं॒सस्य॑ । पत॑त: । स्व॒:ऽगम् । स: । दे॒वान् । सर्वा॑न् । उर॑सि । उ॒प॒ऽदद्य॑ ।स॒म्ऽपश्य॑न् । या॒ति॒ । भुव॑नानि । विश्वा॑ ॥८.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्राह्ण्यं वियतावस्य पक्षौ हरेर्हंसस्य पततः स्वर्गम्। स देवान्त्सर्वानुरस्युपदद्य संपश्यन्याति भुवनानि विश्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रऽअह्न्यम् । विऽयतौ । अस्य । पक्षौ । हरे: । हंसस्य । पतत: । स्व:ऽगम् । स: । देवान् । सर्वान् । उरसि । उपऽदद्य ।सम्ऽपश्यन् । याति । भुवनानि । विश्वा ॥८.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 18

    पदार्थ -

    १. (स्वर्गं पतत:) = सदा आनन्दमय लोक में गति करनेवाले-सदा आनन्दस्वरूप-(हंसस्य) = हमारे पापों का नाश करनेवाले और पापनाश द्वारा (हरे:) = दुःखों का हरण करनेवाले (अस्य) = इस प्रभु के (पक्षौ) = सृष्टि निर्माण [दिन] व प्रलय [रात्रि]-रूप दो पक्ष (सहस्त्राह्णयम्) = सहस्त्र युगपर्यन्त परिणामवाले दिन व रात में( वियतौ) = फैले हुए हैं व विशिष्टरूप से नियमबद्ध हैं [सहस्त्रयुग पर्यन्तमहर्यद् ब्रह्मणो विदुः, रात्रिं युगसहस्त्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ] । २. (स:) = वे प्रभु (सर्वान् देवान्) = तेतीस-के-तेतीस सब देवों को उरसि उपदद्य अपने हृदय में-एकदेश में ग्रहण करके (विश्वा भुवनानि संपश्यन्) = सब लोकों को सम्यक् देखते हुए उनका धारण करते हुए [सं दृश् to look-after] (याति) = सर्वत्र प्राप्त होते हैं [या प्रापणे]।

    भावार्थ -

    सदा आनन्दमय लोक में निवास करनेवाले, पापविनाशक, दु:खनिवारक प्रभु के सृष्टि-निर्माण व प्रलयरूप दिन व रात सहस्रयुगों के परिणामवाले हैं। वे प्रभु सब देवों को अपने में धारण करते हुए, सब लोकों को देखते हुए सर्वत्र प्राप्त हो रहे हैं।

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