अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 34
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
यत्र॑ दे॒वाश्च॑ मनु॒ष्याश्चा॒रा नाभा॑विव श्रि॒ताः। अ॒पां त्वा॒ पुष्पं॑ पृच्छामि॒ यत्र॒ तन्मा॒यया॑ हि॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । दे॒वा: । च॒ । म॒नु॒ष्या᳡: । च॒ । अ॒रा: । नाभौ॑ऽइव । श्रि॒ता: । अ॒पाम् । त्वा॒ । पुष्प॑म् । पृ॒च्छा॒मि॒ । यत्र॑ । तत् । मा॒यया॑ । हि॒तम् ॥८.३४॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्र देवाश्च मनुष्याश्चारा नाभाविव श्रिताः। अपां त्वा पुष्पं पृच्छामि यत्र तन्मायया हितम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र । देवा: । च । मनुष्या: । च । अरा: । नाभौऽइव । श्रिता: । अपाम् । त्वा । पुष्पम् । पृच्छामि । यत्र । तत् । मायया । हितम् ॥८.३४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 34
विषय - अपां पुष्पम्
पदार्थ -
१. (यत्र) = जिस प्रभु में (देवाः च मनुष्याः च) = देव और मनुष्य (श्रिता:) = उस प्रकार आश्रित हैं, (इव) = जैसे (नाभौ अरा:) = नाभि में आरे प्रतिष्ठित होते हैं। मैं उस (अपां पुष्पम्) = [आपो नारा इति प्रोक्ता:] नर-समूहों का पोषण करनेवाले प्रभु को (त्वा पृच्छामि) = तुझसे पूछता हूँ [शिष्य के नाते आचार्य से पूछता हूँ]। उस प्रभु को पूछता है. (यत्र) = जिनमें मायया हितम्-प्रकृति से धारण किया गया (तत्) = वह संसार आश्रित है।
भावार्थ -
प्रभु में ही सब देव व मनुष्य आश्रित हैं। वे ही नर-समूहों का पोषण करनेवाले हैं। प्रभु में ही यह माया से धारण किया गया संसार आश्रित है।
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