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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 22
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - पुरउष्णिक् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त

    भोग्यो॑ भव॒दथो॒ अन्न॑मदद्ब॒हु। यो दे॒वमु॑त्त॒राव॑न्तमु॒पासा॑तै सना॒तन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भोग्य॑: । भ॒व॒त् । अथो॒ इति॑ । अन्न॑म् । अ॒द॒त् । ब॒हु । य: । दे॒वम् । उ॒त्त॒रऽव॑न्तम् । उ॒प॒ऽआसा॑तै । स॒ना॒तन॑म् ॥८.२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भोग्यो भवदथो अन्नमदद्बहु। यो देवमुत्तरावन्तमुपासातै सनातनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भोग्य: । भवत् । अथो इति । अन्नम् । अदत् । बहु । य: । देवम् । उत्तरऽवन्तम् । उपऽआसातै । सनातनम् ॥८.२२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 22

    पदार्थ -

    १. (यः) = जो पुरुष (देवम्) = उस प्रकाशमय (उत्तरावन्तम्) = श्रेष्ठ गुणों की चरम सीमारूप [प्रत्येक गुण absolute निरपेक्षरूप से प्रभु में ही तो है] (सनातनम्) = सदा से विद्यमान प्रभु को (उपासातै) = पूजता है, वह भी (भोग्य:) = उत्तम भोगवाला (भवत्) = होता है, (अथो) = और (बहु अन्नम् अदत्) = बड़े लम्बे काल तक अन्न खानेवाला होता है, अर्थात् सुदीर्घ जीवन प्राप्त करता है।

    भावार्थ -

    'उत्तरावान् सनातन' देव का स्मरण पुरुष को उत्तम भोक्ता व सुदीर्घ काल तक अन्न खानेवाला बनाता है।

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