अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 15
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - भुरिग्बृहती
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
दू॒रे पू॒र्णेन॑ वसति दू॒र ऊ॒नेन॑ हीयते। म॒हद्य॒क्षं भुव॑नस्य॒ मध्ये॒ तस्मै॑ ब॒लिं रा॑ष्ट्र॒भृतो॑ भरन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठदू॒रे । पू॒र्णेन॑ । व॒स॒ति॒ । दू॒रे । ऊ॒नेन॑ । ही॒य॒ते॒ । म॒हत् । य॒क्षम् । भुव॑नस्य । मध्ये॑ । तस्मै॑ । ब॒लिम् । रा॒ष्ट्र॒ऽभृत॑: । भ॒र॒न्ति॒ ॥८.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
दूरे पूर्णेन वसति दूर ऊनेन हीयते। महद्यक्षं भुवनस्य मध्ये तस्मै बलिं राष्ट्रभृतो भरन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठदूरे । पूर्णेन । वसति । दूरे । ऊनेन । हीयते । महत् । यक्षम् । भुवनस्य । मध्ये । तस्मै । बलिम् । राष्ट्रऽभृत: । भरन्ति ॥८.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 15
विषय - महद यक्षम्
पदार्थ -
१. दूर-दूर-से-दूर होता हुआ भी वह प्रभु (पूर्णेन वसति) = पालन व पुरण करनेवाले ज्ञानी पुरुष के साथ रहता है। ज्ञानी पुरुष हृदयदेश में प्रभु का दर्शन करते हैं। (ऊनेन) = परिहीन शक्तियों व ज्ञानवालों से (दूरे हीयते) = वे प्रभु दूर छोड़े जाते हैं, अर्थात् अज्ञानियों व निर्बलों से वे प्रभु दूर ही होते हैं। २. वे (महद् यक्षम्) = महान् पूजनीय प्रभु (भुवनस्य मध्ये) = सारे ब्रह्माण्ड में व्यास हैं। (तस्मै) = उन प्रभु के लिए (राष्ट्रभृत: बलिं भरन्ति) = राष्ट्र का धारण करनेवाले, अर्थात् केवल अपने लिए न जीनेवाले लोग बलि को-भागधेय को प्राप्त कराते हैं, अर्थात् अर्जित धन का यज्ञों में विनियोग करके अज्ञशेष का ही वे सेवन करते हैं। इसप्रकार ही तो प्रभु का पूजन होता है ('यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः')।
भावार्थ -
प्रभु ज्ञानियों के साथ निवास करते हैं, अज्ञानियों से वे दूर हैं। वे पूज्य प्रभु सर्वत्र व्यास हैं। यज्ञशील पुरुष ही प्रभु को पूजते व पाते हैं।
इस भाष्य को एडिट करें