अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 43
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
पु॒ण्डरी॑कं॒ नव॑द्वारं त्रि॒भिर्गु॒णेभि॒रावृ॑तम्। तस्मि॒न्यद्य॒क्षमा॑त्म॒न्वत्तद्वै ब्र॑ह्म॒विदो॑ विदुः ॥
स्वर सहित पद पाठपु॒ण्डरी॑कम् । नव॑ऽद्वारम् । त्रि॒ऽभि: । गु॒णेभि॑: । आऽवृ॑तम् । तस्मि॑न् । यत् । य॒क्षम् । आ॒त्म॒न्ऽवत् । तत् । वै । ब्र॒ह्म॒ऽविद॑: । वि॒दु: ॥८.४३॥
स्वर रहित मन्त्र
पुण्डरीकं नवद्वारं त्रिभिर्गुणेभिरावृतम्। तस्मिन्यद्यक्षमात्मन्वत्तद्वै ब्रह्मविदो विदुः ॥
स्वर रहित पद पाठपुण्डरीकम् । नवऽद्वारम् । त्रिऽभि: । गुणेभि: । आऽवृतम् । तस्मिन् । यत् । यक्षम् । आत्मन्ऽवत् । तत् । वै । ब्रह्मऽविद: । विदु: ॥८.४३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 43
विषय - पुण्डरीकं नवद्वारम्
पदार्थ -
१. (पुण्डरीकम्) = [पुण कमणि शुभे] पुण्य कर्म करने का साधनभूत [धमैकहेतुम्] (नवद्वारम्) = नौ इन्द्रिय द्वारोंवाला, (त्रिभिः गुणेभिः आवृतम्) = 'सत्त्व, रजस, तमस्' नामक तीन गुणों से आवृत्त [आच्छादित] यह शरीर है। (तस्मिन्) = इस शरीर में (यत्) = जो (आत्मन्वत्) = आत्मावाला, अर्थात् जीवात्मा का भी अधिष्ठाता (यक्षम्) = पूजनीय देव है, (तत्) = उस यक्ष को (वै) = निश्चय से (ब्रह्मविदः विदु:) = ब्रह्मज्ञानी ही जान पाते हैं-उस यक्ष को जाननेवाले ही तो ये ब्रह्मज्ञानी है।
भावार्थ -
यह नव इन्द्रिय-द्वारोंवाला व सत्त्व, रज, तमरूप गुणों से आवृत्त शरीर पुण्य कर्म करने के लिए दिया गया है। इस शरीर में ही आत्मा का अधिष्ठाता वह पूज्य प्रभु भी स्थित है। ब्रह्मज्ञानी उसे ही जानने का प्रयत्न करते हैं।
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