Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 44
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त

    अ॑का॒मो धीरो॑ अ॒मृतः॑ स्वयं॒भू रसे॑न तृ॒प्तो न कुत॑श्च॒नोनः॑। तमे॒व वि॒द्वान्न बि॑भाय मृ॒त्योरा॒त्मानं॒ धीर॑म॒जरं॒ युवा॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒का॒म: । धीर॑: । अ॒मृत॑: । स्व॒य॒म्ऽभू: । रसे॑न । तृ॒प्त: । न । कुत॑:। च॒न । ऊन॑: । तम् । ए॒व । वि॒द्वान् । न । बि॒भा॒य॒ । मृ॒त्यो: । आ॒त्मान॑म् । धीर॑म् । अ॒जर॑म् । युवा॑नम् ॥८.४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अकामो धीरो अमृतः स्वयंभू रसेन तृप्तो न कुतश्चनोनः। तमेव विद्वान्न बिभाय मृत्योरात्मानं धीरमजरं युवानम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अकाम: । धीर: । अमृत: । स्वयम्ऽभू: । रसेन । तृप्त: । न । कुत:। चन । ऊन: । तम् । एव । विद्वान् । न । बिभाय । मृत्यो: । आत्मानम् । धीरम् । अजरम् । युवानम् ॥८.४४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 44

    पदार्थ -

    १. ब्रह्मज्ञानी उस प्रभु को इस रूप में जानता है कि वे प्रभु (अकामः) = सब प्रकार की कामनाओं से रहित हैं। वे (धीरः) = [धिया ईत] बुद्धिपूर्वक गतिवाले हैं-उनकी सब कृतियाँ बुद्धिपूर्वक होने से पूर्ण हैं। वे (अमृत:) = अविनाशी हैं, (स्वयम्भः) = सदा से स्वयं होनेवाले हैं उनका कोई कारण नहीं है-वे कारणों के भी कारण हैं। (रसेन तृप्तः) = वे रस से तृप्त है-रसरूप हैं 'रसो वै सः'। (कुतश्चन ऊनः न) = किसी भी दृष्टिकोण से न्यून नहीं हैं-वे पूर्ण-ही-पूर्ण हैं। २. (तम्) = उन (धीरम्) = बुद्धिपूर्वक गतिवाले (अजरम्) = कभी जीर्ण न होनेवाले (युवानम्) = नित्य तरुण अथवा बुराइयों का अमिश्रण व अच्छाइयों का मिश्रण करनेवाले (आत्मानम्) = परमात्मा को (विद्वान् एव) = जानता हुआ ही पुरुष (मृत्योः न बिभाय) = मृत्यु से भयभीत नहीं होता-वह जन्ममरण के चक्र से मुक्त होकर मोक्षलाभ करता है।

    भावार्थ -

    वे प्रभु 'अकाम, धीर, अमृत, स्वयम्भू, अजर व युवा' हैं। रस से तृप्त व न्यूनता से रहित हैं। उन प्रभु को जानकर मनुष्य मृत्यु-मुख से मुक्त हो जाता है। यह भी 'अकाम, धीर, अजर व युवा' बनने का यत्न करता है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top